शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

दुर्जन-सज्जन

भूपति मन कंजूस धन, दुर्जन मन की चाह।
नारि चरित, नर भाग्य गति, विधि हू जानि न पाय॥॥

दुर्गुण को न छुपाइए, दुर्गुण बुरी बलाय।
एक बार आश्रय मिले, प्रति-पल अति गहराय॥॥

मन, वाणी अरु कर्म में, सज्जन एक समान।
जिन में यह समता नहीं, तिन को दुर्जन जान॥॥

दुख-सुख अरु निगुनी-गुनी, रूप मूर्ख विद्वान।
कीर्ण-कुसुम, रजनी-दिवस, नित्य पराश्रित जान॥॥

निज गुन बिन, पर-नकल से, मानव बड़ा न होय।
खाय कुलंजन मुलहटी, काग न पिक-स्वर होय॥॥

मलय मूल अहि बसत हैं, शाखा पर कवि वृन्द।
पफुनगी पर षट्पद बसत, इमि सज्जन खल पफन्द॥॥

नर तन पा भी नहि किया, ललित कला से प्यार।
सींग-पूँछ बिन समझिये, नर-पशु भू पर भार॥॥

धर्म न शील न कला रुचि, नहि आचरण उदार।
ऐसे जन इन भूमि पर, हिंस्र जन्तु अवतार॥॥

ये नर-पशु यदि जगत्‌ में, खाने लगते घास।
तो धरती पर हो नहीं, पाता पशु आवास॥॥

बाध भय से अधम जन, करें न कोई काम।
मध्य रुकें बाध मिले, उत्तम गति अविराम॥॥

प्यास लगे खोदे कुआँ, मूरख समझो ताहि।
समय रहत चेते नहीं, हाथ मले पछिताहि॥॥

मर्यादा पालन करें, जिन में बुद्धि विवेक।
पिंजर में चकवा युगल, भूले होंय न एक॥॥

निज सुख-सुविध त्याग जो, जनहित करे अघाय।
परजा रंजन में रमें, सो सत राज कहाय॥॥

स्वयं खाय नहि खान दे, कहिए मक्खीचूस।
पर हित भूले ना करे, खुद खाए कंजूस॥॥

निज सुख परहित में लखे, जानो तेहि उदार।
पर-सुख हित जो दुख सहे, ते ज्ञानी संसार॥॥

निज-गुन पर-अवगुन लखैं, पफूलै नहीं समाय।
निज-अवगुन परगुन-लखे, ज्ञानी वही कहाय॥॥

पर-नारी निज-मात सम, पर-धन धूरि समान।
निज वत देखे जीव सब, सो ज्ञानी विद्वान॥॥

पर सम्पत्ति देखत जरें, पर दुख लखि हरषाय।
देखत ऐसे मनुज को, मानवता सकुचाय॥॥

नीच न छोड़े नीचता, लाख संत मिलि जाँय।
निशिदिन बसत कपूर संग, हींग गंध नहि जाय॥॥

बिन कारण झगड़त पिफरे, दया नहि मन माँहि।
जो पर-धन पर-दार रत, समझो दुर्जन ताहि॥॥

समता मन, वच, कर्म में, सज्जन की पहचान।
इनमें समता जहँ नहीं, दुर्जन ता कूँ मान॥॥

निज दुख में तो होत हैं, गीले सबके नैन।
पर सज्जन मन रहत है, पर दुख ते बेचैन॥॥

निज सुख दुख बिसराय के, पर सुख-दुख में लीन।
रात-दिवस जागत रहे, देवी सम परवीन॥॥

मनसा वाचा कर्मणा, समता जाकी नाँहि।
विद्वत, विज्ञ समाज में, सज्जन ते न कहाँहि॥॥

मिलत जाहि दुख होत है, बिछुरत निकसत प्रान।
दुर्जन, सज्जन की समझ, 'शापित' यह पहिचान॥॥

थोड़ा पढ़ सोचे अधिक, बोले कम विद्वान।
'शापित' ऐसे सुजन का, होय सतत सम्मान॥॥

भूत सोच दुख होत है, भय का जनक भविष्य।
वर्तमान चिन्तन करें, सो ज्ञानी गुरु-शिष्य॥॥

उत्तम, मध्यम, अधम जन, यह चरित्र पहिचान।
जल सिकता पाषाण की, समझो लीक समान॥॥

संतशरण में पहुँच भी, चाहे विषयानन्द।
वह मूरख जीवित मृतक, चहे न भजनानन्द॥॥

संत पास संपति नहीं, सन्मति देत अमूल।
प्रभू मिलन की राह के, दूर होंय सब शूल॥॥

संत कृपा बिन शुद्ध-मन, होता नहीं अजान।
बिना शुद्ध मन के अधम, दर्शन दुर्लभ जान॥॥

साबुन लागे ना छुटे, खारे पानी मैल।
खल संगति त्यागे बिना, मिले न निर्मल गैल॥॥

शापित सज्जन संग ते, यश सहजहि मिल जाय।
मैंहदी पीसत हाथ जिमि अनचाहे रचि जाय॥॥