गंगा जल है औषधी, वैद्य प्रभु श्रीराम।
अनुपान विश्वास से, कटे व्याधि की दाम॥॥
गंगा मात्र नदी नहीं, जीवन दर्शन सार।
सारे भारत देश की, जनता की आधार॥॥
गंगाजल धर शीश पै, करते हलके पाप।
ता कूँ ही मल मूत्र तै, दूषित करते आप॥॥
अस्थि-भस्म कौ विसर्जन, इक सीमा तक ठीक।
समय संग बदलो दिशा, तोड़ो पिछली लीक॥॥
गंगा माँ की होत है, याते तनिक न हानि।
हम तो भोग रहे कहा? भोगेंगी सन्तानि॥॥
हर हर गंगे कह रहे, गोता सभी लगाय।
पर गंगा की विथा कूँ, कोऊ समझे नाय॥॥
गंग नहाए हरि कहे, घटे न मन को मैल।
बिन गुरु औ सत्संग के, मिले न सूधी गैल॥॥
विष्णुपदी, भगीरथी, जटा शंकरी नाम।
वर्तमान या रूप ते, पाओगे सुरधाम॥॥
जितने तारे गंग माँ, उतने तारे नाहि।
मो पापी की हूँ करो, गिनती उनके माँहि॥॥
अज पृष्ठे विष्णू गले, मुख में रुद्र निवास।
मध्य भाग गौ रोम में, करें देवता वास॥॥
शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
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