शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

मन

मन की गति समझ न परे, कीने लाख विचार।
बाल-वृद्ध, नारी पुरुष, सब इससे लाचार॥॥

राव-रंक, निर्धन धनी, सब मन के आधीन।
मन के हाथों बन गए, मूरख बडे़ प्रवीन॥॥

मन मन को ढूँढत पिफरे, पर मन मिलता नाय।
आँख मिले, तन भी मिलें, पर मन मन न समाय॥॥

मन माने की बात है, को अपना को गैर।
या मन ते ही होत है, प्रेम, भक्ति औ वैर॥॥

मन चपला सम चपल है, ज्यों नदिया की धर।
मूढ़-विज्ञ, निर्धनी-धनी, इससे सब लाचार॥॥

मन से जन निज पर बने, मन ही ते सुख चैन।
जब तक मन वश में नहीं, जी तड़पत दिन रैन॥॥

मन ममता और मोह से, कटे न जब तक पफन्द।
विषय वासना त्याग कर, शरण गहे रघुनन्द॥॥

मन के पहिचाने बिना, सरै न कोई काम।
मन को वश कीने बिना, सपनेहु मिलें न राम॥॥

मन की गति अति ही प्रबल, जाने बिरला कोय।
जो मन की माने सदा, सो सुख नींद न सोय॥॥

मन की सब मन में रही, काल गहे कर केश।
शापित इस संसार में, चार दिना की रेस॥॥

खावत, पीवत, सोवते, सबरी पूरी आस।
कौन कमी पिफर रे मना, जो नित रहत उदास॥॥

मन पगले भूले मती, दुनिया विष की गाँठ।
साँचे तो बस राम हैं, पर भजने में आँट॥॥

साठ बरस तक भी नहीं, मिट पाई यह प्यास।
मन-मधुकर भटकत रहौ, नारी अंग-सुबास॥॥

गुरु की अनुकम्पा भई, बुद्धि बनी प्रवीण।
अस्थिर, चंचलता मिटी, मन निर्मल कर दीन॥॥

अपत कटीली डार पर, अब नहि खिले गुलाब।
मन-मधुकर पिफर भी रहे, बिंध्यो प्रेम के भाव॥॥

इत-उत चारों ओर ही, सजा रूप बाजार।
अँखियन कौ बिगरे न कछु, मन कूँ मारे मार॥॥

सहत-सहत पीड़ा हुआ, 'शापित' मन अभ्यस्त।
अब नहि पीड़ा व्यापती, हुए हौसले पस्त॥॥

ऐसी कुछ इच्छा नहीं, जिससे होय अधर्म।
केवल भाव-विचार हित, अधर करें कुछ कर्म॥॥

'शापित' मन वैरी भया, अब अपने वश नाहि।
निसि-बासर तड़पत रहे, तव दर्शन की चाह॥॥

शत्रु-मित्र मन ते बनें, मन ते सुख-दुख होय।
मन के वश सब जगत्‌ है, मन विरले वश होय॥॥

मन-दर्पण में पीव की, मूरत यों बसि जाय।
ज्यों-ज्यों प्रिय दूरी बढै़, त्यों-त्यों अति गहराय॥॥

मन मारे बिनु साधना, पथ पर बढें न पैर।
जीव, जगत्‌ और ब्रह्म में, मन ही डारे वैर॥॥

डाल-डाल झूलत पिफरत, मन-कपि अति इतराय।
लालच इक मुटटी चना, को दर-दर नचवाय॥॥

तिय, सुत, धन और मान हित, मनुआ तड़पत नित्य।
तजे न विषय विकार मन, प्रभु में लगे न चित्त॥॥

तन बूढ़ा ह्वै जात है, मन नाहीं बुढ़ियात।
गजगामिनि मृगलोचनी, देख देख दुखियात॥॥

तन कुदरत आधीन है, पर मन वश में नाहि।
यौन-बगिया कुसुम लखि, मन-मधुकर ललचाहि॥॥

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
मन से होती शत्रुता, मन से होती प्रीत॥॥

रूप अरूप कुरूप सब, मन माने की बात।
जेहि संग लगि जाय मन, सोई ताहि सुहात॥॥

अनचाहे ही जाय जब, मन में कोय समाय।
कीने लाख प्रयास हूँ, पिफर वह निकसत नाय॥॥

वाणी कह पाती नहीं, निकसत शब्द लजात।
निज सीने पर हाथ रख, जानो मन की बात॥॥

कागज लिखते मन डरे, बोलत मन शरमात।
तुम तो परम प्रवीन हो, समझो मन की बात॥॥

घर छोटा पर मन बड़ा, यह उन्नति का राज।
अवनति की राह पर, लघु मन है ले जात॥॥

कोई टिप्पणी नहीं: