सहत-सहत पीड़ा हुआ 'शापित' मन अभ्यस्त।
पास न पीड़ा आवती, हुए हौंसले पस्त॥॥
कहाँ गई वह जिन्दगी, कहाँ गया वह जोश।
भूलें रह-रह सालतीं, आवे निज पर रोष॥॥
इन निधनी दुखियान की, प्रभु अब सुनो पुकार।
तुम बिन दूजो जगत् में, को है तारनहार॥॥
एक तिहारो आसरो, और न न दूजो ठाउँ।
पाँव थके अँखियाँ शिथिल, किस विधि तोकू पाऊँ॥॥
काम क्रोध का पूतला, अन्तर अहं प्रधान।
इसमें कुछ मेरा नहीं, केवल तेरी आन॥॥
देकर मुझको बुद्धिबल, भेज दिया जग माँहि।
धन पद की सामर्थ्य बिन, लोग देख मुसकाँहि॥॥
दो पाटन में पिस रहा 'शापित' जीवन तोर।
रात न सोवन देय कवि, अध्यापक नहि भोर॥॥
मानवता संवेदना, बनी आज अभिशाप।
'शापित' बन मन भोगता, मानवता का शाप॥॥
दर-दर भटक्यो बालपन, बेचे पफल आकन्द।
गुरु कृपा प्रभु दया ते, कलम चले निर्द्वन्द्व॥॥
अल्प काल सेवा करी, मेवा मिली अनन्त।
चपरासी चिन्तक हुआ, मनुआ अब निश्चिन्त॥॥
आधे से ज्यादा कटी, प्राप्त हुआ धन नाम।
ऐसी शक्ति देऊ प्रभु, करूँ श्रेष्ठतम काम॥॥
हो निराश पथ भ्रष्ट हो बैठा था मन मार।
राम प्रेरणा भरत ने दी साहस की डार॥॥
जग में अपना कौन है, सब स्वारथ की प्रीत।
मम जीवन की हाथ तव, नाथ हार अरु जीत॥॥
ऐसी ऊँचाई मुझे, मत देना भगवान।
जहाँ पहुँच निज बंधु जन, की भूलूँ पहचान॥॥
शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
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