भक्ति रंग मन पर चढे़, भव सुख नाँहि सुहाय।
जब तक मन भव सुख रमे, भक्ति नहीं हो पाय॥॥
को न ग्रसित लालच प्रकृति, काहि न रूप लुभाय।
संतोषी हरिभक्त पर, इनका वश न चलाय॥॥
ब्रह्म ज्ञान ऊधे दियो, गोपिन पै बरसाय।
भरी प्रेम रस गागरी, यह रस कहाँ समाय॥॥
सिर पर मटका हाथ रजु, सखी संग बतियात।
मटका मन कुँ सौंप के, तन इठिलावत जात॥॥
इच्छा दुख का हेतु है, इच्छहि लीजै जीत।
त्याग जगत् की लालसा, प्रभु चरनन कर प्रीत॥॥
जीवन गति का नाम है, आलस मृत्यु समान।
छन छन छीजत जाय तन, शापित कर अनुमान॥॥
लोभी प्रेम न पा सके, लम्पट यश नहि पाय।
प्रेम-सुयश ताकू मिले, परहित निज बिसराय॥॥
'मैं', 'मेरे' के पफेर में, पडे़ रहे दिन रैन।
'शापित' ऐसे जन नहीं, पावें पल भर चैन॥॥
बिना मोल के प्रभू ने, दीने तत्त्व अमोल।
पलभर वा की याद कर, पगले आँखें खोल॥॥
शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
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