रचना शिशु साधक जननि, प्रकाशक है धय।
जो न उचित दाई मिले, शिशु असमय मर जाय॥॥
माँ शारद के भवन पर, मठाधीश अधिकार।
दरबारी चमचे रहे, साधक को दुत्कार॥॥
शब्द-भक्ति-ध्वनि वर्ण का, अन्तर तक नहि ज्ञात।
चमचागीरी कर वही, रचनाकार कहात॥॥
धरती कागद, हल कलम, बीज भाव के बोय।
जनहित पफसल उगावते, ताहि न बूझे कोय॥॥
ऽ ऽ ऽ
देख पिता की विवशता, सुख वैभव सब त्याग।
उत्पल वर्णा भिक्षुणी, बनी धरि वैराग॥॥
जेठी बाई धन्य तुम, धन्य तुम्हारा कर्म।
तुम जैसी सन्तान बिनु, व्यथित गात का मर्म॥॥
'तनसुख' नाम कहाय हू, नहि तन-सुख पर दृष्टि।
राम नाम सम ही करी, सद्-गन्थन की सृष्टि॥॥
स्व संस्कृति, भाषा, धर्म, छापे अगनित ग्रन्थ।
व्यवसायी की भीड़ में, अलग बनायो पन्थ॥॥
शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें