प्रीत मछरिया ने करी, जल बिन त्यागे प्राण।
जल निर्मोही तजि गया, जिमि नाही पहिचान॥॥
अरे 'शलभ' इस दीप पर, तू काहे मँडरात।
पंख जलेंगे बावरे, कुछ नहि लगि है हाथ॥॥
पंख जरैं, वपु हू जरे, इस का भय मोहि नाय।
एक बार बस प्राण प्रिय, देखि लेय मो माहि॥॥
एक न मानी शलभ ने, पहुँचा दीपक पास।
एक लपट में भुन गया, तड़प रही है लाश॥॥
प्रीत-पीर सब से बुरी, या सम पीर न कोय।
पर समझे इसको वही, जिसने भुगती होय॥॥
प्रेम तन्तु अति ही मृदुल, तोड़ो मत चटकाय।
एक बार चटका अगर, पिफर यह जुड़ता नाय॥॥
प्रीत करी प्रेमी बने, अब क्यों होत अधीर।
प्रीत-बेल पनपत सदा, दो नैनन के नीर॥॥
'शापित' इस संसार में, चार दिना की प्रीत।
मतलब तक साथी सभी, पिफर को कैसा मीत॥॥
निज मन को समझाय कर, धरो धैर्य किशोर।
प्रेम उदधि अति गहन है, जिस का ओर न छोर॥॥
जब विधि ने ही नहि लिखा, प्रेम-प्रीत-संयोग।
व्यर्थ नैन क्यों बिलखते, पूर्व जनम कौ भोग॥॥
प्रेम-पंथ व्यापक विपुल, पर विचित्र इक बात।
एक समय में खिलत है, यहाँ एक जल जात॥॥
प्रेम न हाथ पसारतो, नहिं प्रकटे अधिकार।
मूक साधना में करे, वह तो योग विचार॥॥
प्रेम न तोला जाय जग, ना ही नापा जाय।
भाव-कसौटी पर कसै, प्रेम-हेम चमकाय॥॥
प्रेम-पंथ पर ध्रत पग, सब संशय मिट जाय।
सन्तोषी के सामने, जैसे द्रव्य मसाय॥॥
प्रेम, नेम और धर्म है, प्रेम रतन धन खान।
प्रेम-पंथ पर चल मिले, मानव में भगवान॥॥
तन-बगिया में प्रेम के, बीज देउ बिखराय।
रोम-रोम में सहज ही, परमानन्द लखाय॥॥
कबिरा, तुलसी, सूर के, अद्भुत प्रेम-प्रसंग।
सहज-रूप में प्रभु मिले, प्रेरक बनो अनंग॥॥
भक्ति, ज्ञान, वैराग्य का, मूल मंत्र है प्रेम।
विविध रूप धारण करे, ज्यों नारी हित हेम॥॥
कपट-खटाई परत हीं, प्रेम-दूध पफटि जाय।
विषयी लम्पट स्वार्थी, प्रिय-नवनीत न पाय॥॥
क्षेम, कुशल, कल्याण सब, शब्द प्रेम आधीन।
प्रेम पंथ पर चलत हैं, चतुर, सुजन परवीन॥॥
प्रेम न बंधन जाति का, प्रेम न वय आधीन।
देह निहारे वासना, प्रेम आत्मा लीन॥॥
कमल, कुमुद को देत कछु, सूरज-चन्दा नाय।
देखत ही खिल जात हैं, सहज-प्रेम सत भाय॥॥
प्रीत खोजने में दिया, जीवन सकल बिताय।
व्यवसायी या जगत् में, प्रेम न कहीं लखाय॥॥
प्रेम पंथ झाड़ी उगे, भूल न उगे गुलाब।
मन-मधुकर समझे नहीं, अगनित दिये सुझाव॥॥
प्रेम सूत्र अति सूक्ष्म है, सोच लेहु मन माँहि।
तनिक उपेक्षा होत ही, टूक-टूक ह्वै जाहि॥॥
प्रेम भावना पर नहीं, मानव का अधिकार।
रोके से रुकती नहीं, ज्यों नदिया की धर॥॥
प्रेम पथिक मुख ते नहीं, कहें प्रेम की बात।
बिना कहे अन्तर जले, दृग जल जाहि बुझात॥॥
प्रेम पिपासा जीव के, जीवन की पहिचान।
बिना प्रेम के कर्म सब, जैसे जगे मसान॥॥
सत्य प्रेम कूँ आजकल, कोउ न आदर देय।
बातूनी मक्खन लगा, रूप रंग रस लेय॥॥
पात पात उस चमन का, जाने मन की बात।
जानबूझ अनजान बन, पर माली मुसकात॥॥
अनजाने बन जात हैं, इक दूजै के मीत।
ना जाने किस जन्म की, मिलती भटकी प्रीत॥॥
प्रेम प्रेम सब रट रहे, बालक वृद्ध जवान।
रूप-कमल के मधुप ये, नहीं प्रेम पहचान॥॥
स्वारथ की डोरी बँधे, लोग जतावें प्रेम।
मात पिता सुत भामिनी, यही जगत् का नेम॥॥
शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
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