शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

तुलसी स्वरूप परम पूज्यपाद श्री रामकिंकर जी महाराज

देव वन्दन

प्रथम पूजि गजवदन को, चरण कमल चित लाय।
सतसैया प्रस्तुत करूँ, कीजै देव सहाय॥॥

सब देवों में पूज्य जो, शिव के पुत्र उदार।
लज्जा मेरी राखिये, मूषक के असवार॥॥

नहि कविता का ज्ञान कुछ, नहि कुछ छंद विचार।
हंस वाहिनी मात निज, हाथ शीश मम धर॥॥

कर वीणा पुस्तक धरे, अन्य हस्त है माल।
कृपा-दृष्टि हो जाय यदि, मूक होय वाचाल॥॥

मानव-मन पाषाणवत, संयम छैनी-धार।
बुद्धि हथौड़ा ज्ञान-गुरु, प्रतिभा रचे सुधार॥॥

श्रीगुरु चरण नवाय सिर, और गणेश मनाय।
सतसैया के सृजन में, शारद करो सहाय॥॥

मात भगवती शारदा, क्षमा करो मम दोष।
शिथिल लेखनी में भरो, माँ थोड़ा सा जोश॥॥

माता तेरी कृपा ते, बनत असम्भव काज।
बुद्धिहीन या दास की, हाथ तिहारे लाज॥॥

विद्या बुद्धि स्वरूपिणी, वाणी की दातार।
दीन-हीन या जीव कौ, बेड़ा कीजै पार॥॥

विषयी, लम्पट, दीन के, घर में बैठो आय।
वर्ण-शब्द-ध्वनि-भाव-रस, लेखनि में बसि जाय॥॥

हे माता परमेश्वरी, शक्ति रूप गुन खान।
मोह मुक्त कर दीजिये, छूटे मिथ्या मान॥॥

सबते भोले देव शिव, याहि लेहु पतियाय।
आक, धतूरा अंजुली, भर बस दूध चढ़ाय॥॥

जा पर कृपा न करें शिव, वह न राम-रज पाय।
औघड़दानी लीजिये, 'शापित' को अपनाय॥॥

औघड़ दानी परम्‌ शिव, राम चरण रति देउ।
राम कथा गुन गान हित, अज्ञ हि शक्ति देउ॥॥

गुरु, गणेश, शारद सुमरि, शिव चरणन धरि शीश।
राम कथा बरनन चहूँ, किरपा करहु कपीश॥॥

जा पर कृपा न होय तव, रामशरण नहि पाय।
बुद्धि पुंज, अंजनि सुवन, कीजै स्वामि सहाय॥॥

मैं, पापी, कपटी, छली, औरहुँ अगनित दोष।
मात-पिता शिशु पर कभी, भूल न करते रोष॥॥

मेरी भव चिन्ता हरो, हे कौशलपति भूप।
तजत शत्रुहू शत्रुता, देखत ही तव रूप॥॥

कौशल्या माता सुमरि, लै कैकई अशीष।
मात सुमित्रा चरणरज, धरण कर नीज शीश॥॥

श्रुतिकीरति और माण्डवी, उर्मिलपद सिरनाय।
जनक नन्दिनी जानकी, कीजै दास सहाय॥॥

जनक नन्दिनी जानकी, जगत्‌ जननि प्रभु-शक्ति।
कामी-पापी मूढ़ को, दीजै गुरु की भक्ति॥॥

महाराज दशरथ सुमरि, लव-कुश शीश नवाय।
पवन-पुत्र हनुमान प्रभु, हृदय विराजो आय॥॥

कर नव-ग्रह की वन्दना, दशदिशि शीश नवाय।
लखन, शत्रुघ्न भरतजी, कीजै दास सहाय॥॥

राम की डोर गहि, मनुआ मत अकुलाय।
पशु-पक्षी तक तरि गए, ग्रन्थन देख उठाय॥॥

तुम अति दीन दयालु प्रभु, मैं अति अज्ञ लबार।
पाप नदी की भँवर में, नौका बिन पतवार॥॥

ईश कृपा

'शापित' क्यों चिन्ता करे, तव चिन्ता बेकार।
बिन हरि कृपा न होय कुछ, लाख मरो सिरमार॥॥

भावी होने को बनी, टलती कबहूँ नाय।
रोवन हित नैना मिले, कैसे तब मुस्काय॥॥

जीवन के दिन चार हैं, मन कर लेहु विचार।
पिफर नहि आवे यह घड़ी, रे मन प्रभुहि पुकार॥॥

'शापित' इस संसार में, सभी तरह के लोग।
प्रभु का भजन बिसारि कर, चाहत हैं सुख भोग॥॥

आँधी आवत प्रेम की, मन उड़ जाय अकास।
जीव-ब्रह्म से जा मिले, यदि हो सच्चा दास॥॥

बिनु प्रभु कृपा न गुरु मिले, गुरु बिन मिले न ज्ञान।
जैसे बिन सूरज उगे, होय न निशि अवसान॥॥

जन्म मरण सम ही नहीं, सत्संगति निज हाथ।
प्रभु कृपा और भाग्य बस, होय संत जन साथ॥।

जप व्रत पूजा पाठ अब, छूटे सब आधार।
एक आस प्रभु कृपा की, गुरु चरनन उद्धार॥॥

गुरुजन आवत देख कर, सादर करे प्रणाम।
आयु विद्या बल बढे़, होय जगत्‌ में नाम॥॥

अल्पज्ञान भी मिला हो, गुरुवत उसको मान।
किये अनादर होय वह, चाण्डाली घर श्वान॥॥

सभी निरोगी अरु सुखी, सभी भद्रता युक्त।
परहित रत निशिदिन रहें, करें कष्ट से मुक्त॥॥

जन-मन दुर्जनता मिटे, सज्जनता बसि जाय।
सत्य-अहिंसा क्षमा के, सुमन हृदय खिल जाँय॥॥

मनसिज सुख चिन्तन किये, जड़वत होती बुद्धि।
दीन बन्धु चरण रज, होय अहल्या शुद्धि॥ ॥

पथ परमारथ अति सरल, लोक पंथ अति शूल।
क्षमा करें, प्रभु भूल सब, लोक दण्ड प्रति भूल॥॥

विविध रूप धन के यहाँ नहि सन्तोष समान।
जब आवे सन्तोष मन, कृपा प्रभू की जान॥॥

गुरु-कृपा

गुरु अनुकम्पा से बनें, जग के बिगड़े काम।
मो से दुर्जन अज्ञ पर, कृपा करी प्रभु राम॥॥

राम कृपा ते भक्ति का, जो कुछ चाखा स्वाद।
दिशा 'कटारा' जी दई, 'किंकर' ज्ञान प्रसाद॥॥

गुरु ने महती दया कर, दीनी राह विवेक।
मैं कामी अति मन्द मति, चला नहीं पग एक॥॥

इत-उत मन भटकत रहा, कहीं मिला नहीं सत्य।
इन दिन गुरु ने कृपा कर, समझाया भव तथ्य॥॥

गुरु चरनन में प्रेम कर, जैसे चन्द चकोर।
कृपा-कटारी काटिहै, भव-बन्धन की डोर॥॥

बिन गुरु कृपा नहि मिले, वेद-शास्त्र का सार।
लाख जतन कर लीजिए, पढ़ लीजै सौ बार॥॥

बिनु गुरु कृपा न भ्रम मिटे, तेहि बिन होय न ज्ञान।
ज्ञान बिना विश्वास नहि, तेहि बिन मिलहि न राम॥॥

चहुँ दिसि प्रभु ढूँढत पिफरो, मिले झलक तक नाय।
गुरु किरपा, श्रद्धा, लगन, पिण्डे ही मिल जाय॥॥

जन्म-मरण निज वश नहीं, निज वश नहि सत्संग।
गुरु किरपा अरु भजन बिन, मिटे न कलि का जंग॥॥

गुरु कृपा उपजै भगति, भगति किए हो ज्ञान।
ज्ञान-ध्यान बन्धन कटैं, दरसन दें भगवान॥॥

मैं-हम की रसरी बटे, सुत-दारा सुख आस।
गुरु अनुकम्पा भगति बिन, कटे न जीवन पाश॥॥

बिन गुरु कृपा न भासते, घट-घट वासी राम।
जीव मात्र का हित किये, मिले अमित विश्राम॥॥

बिनु गुरु कृपा के गति नहिं, गुरु बिन मिलहि न ज्ञान।
बिनु गुरु कृपा न प्रभु द्रवहिं, मिलहि न पल विश्राम॥॥

इन्द्र जाल सम जगत्‌ में जीव रहा भरमाय।
गुरु ज्ञान अंजन मिले, पल में भ्रान्ति नसाय॥॥

गुरु वन्दन

बंदऊँ गुरु तव कमल पद, हे प्रभु 'मोहन' रूप।
शीघ्र उबारो नाथ अब, पड़ा अज्ञ भव-कूप॥॥

दृढ़ श्रद्धा विश्वास से, गुरु का कीजै ध्यान।
मोह मुक्त कर भक्ति का, गुरुवर दें वरदान॥॥

मन पावन हो ज्ञान से, धन की सदगति दान।
गुरु-सेवा, सत्संग से, मिले मुक्तिपथ धाम॥॥

ध्यान रखो गुरु चरन में, करो सकल निज कर्म।
स्वाति बूँद पपिहा तपै, घट परिहारिन मर्म॥॥

राम कथा की मित नहीं, कहें अनादि अनन्त।
तुलसी 'किंकर' रूप में, पूजत विद्वत संत॥॥

बाल्मीकि तुलसी भये, तुलसी 'किंकर राम'।
राम कथा बिन नहि कटें, रोग खोट विश्राम॥॥

'गुरु किंकर' अपनाय कर, दीना जनम सुधर।
निश्चित अगले जन्म में, मिले राम का द्वार॥॥

बिनु गुरु कृपा न अघ नसहिं, मन न होय निष्काम।
काम-युक्त मन में कभी, बसहिं न 'किंकर-राम'॥॥

गुरु महिमा

गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु है, गुरु ही जान महेश।
गुरु महिमा नहीं कह सकें, सहस शारदा शेष॥॥

ब्रह्मा जी सृष्टि रचें विष्णू रक्षा कार्य।
प्रलय कार्य शंकर करें, सद्गुरु तीनों कार्य॥॥

गुरु-ज्ञान प्रतिरूप है, गुरु ब्रह्म और ईश।
गुरु अनुकम्पा के बिना, मिलें नहीं जगदीश॥॥

गुरु समझो उस व्यक्ति को, जिसका तन-मन एक।
करनी-कथनी एक सी, बात कहे सविवेक॥॥

जीव-ब्रह्म और जगत्‌ का, गुरु दे भेद बताय।
दरस-परस से हृदय का, कल्मष देय भगाय॥॥

गुरु वाणी का भूलकर, करो नहीं अपमान।
सात जन्म में भी नहीं, होगा पिफर कल्याण॥।

बिना गुरु के गति नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान।
निगुरा इस संसार में, जैसे सूकर, श्वान॥॥

गुरु बिन ज्ञान न होय मन, तेहि बिन मोह न भाग।
मोह गए बिन कल्प सत, होय न दृढ़ अनुराग॥॥

शिव सम अवगुन नष्ट कर, पोषे विष्णु समान।
ब्रह्मा सम सर्जन करें, मन में भगती-ज्ञान॥॥

गुरु महिमा की मित नहीं, गावत वेद पुरान।
भट्ट निरक्षर भी भए, कृपा-कोर विद्वान॥॥

अन्ध्कार-अज्ञान-निशि, गुरु-रवि देत नसाय।
बिनु दिनेश नहि तम नसै, कीजै कोटि उपाय॥॥

पूर्व पुण्य प्रारब्ध से, पावे गुरु-आशीष।
गुरु अशीष अरु कृपा से, द्रवैं राम जगदीश॥॥

परम मंत्र विश्वास है, गुरु-मुख निकला शब्द।
दृढ़ निश्चय नियमित जपै, व्यक्त होय अव्यक्त॥॥

राष्ट्र महिमा

निज संस्कृति के ज्ञान बिन, बने न देश महान।
वेद, उपनिषद् भागवत, गीता, गंगा-ज्ञान॥॥

नए वर्ष का हो गया, अर्ध रात्रि प्रवेश।
मानवता सद्भाव की, वृद्धि करें गणेश॥॥

नव-प्रभात गुरुवार का, ले आया नव वर्ष।
स्थायी हो सरकार तो, सम्भव जन-उत्कर्ष॥॥

भारत-रज-चन्दन बसे, स्वर्ग बसे हर गाम।
हर बाला सीता यहाँ, बच्चा-बच्चा राम॥॥

गंगा तट है ज्ञान का, यमुना कर्म अधर।
मर्यादा की प्रेरणा, देती सरयू धर॥॥

उत्तर दिशि नगराज हैं, दक्षिण सिंधु महान।
अटक-कटक के बीच में, बसता हिन्दुस्थान॥॥

रहा विश्व में राष्ट्र का, राज्य मूल आधर।
शक्ति भारत राष्ट्र की, दर्शन धर्म-विचार॥॥

गंगा-यमुना सरसुती, कावैरी औ सिन्धु।
ब्रह्मपुत्र औ नर्मदा, पुण्य लाभ के बिन्दु॥॥

महानदी, गोदावरी, कृष्णा दक्षिण प्राण।
शुभ दामोदर कुण्ड से, गण्डक बही महान॥॥