बड़े-बड़े पोथे पढ़े, और पढ़ लीने वेद।
समझ न इस पर भी सके, नारी मन का भेद॥॥
नारी चतुर सुजान अति, सकल कला परवीन।
मृदु वाणी से सींचकर, ढूँढ पल्ल्वित कीन॥॥
सम्बोधन के शब्द से, खींची सीमा रेख।
मन-चकोर सम कर दिया, जिये जु राशि मुख देख॥॥
भाव-भंगिमा मधुरिमा, औ रतनारे नैन।
रोम-रोम झंकृत करै, काम अनकहे बैन॥॥
मेरे तेरे बीच में, अन्तर इक दो नाय।
बुद्धि लाख समझा रही, पर मन मानत नाय॥॥
लेना-देना कुछ नहीं, पिफर भी झूठी आस।
पास होत दूरी रहे, दूरी में अति पास॥॥
कभी-कभी जब करत हैं, सहज प्रेम-व्यवहार।
मधुर रागिनी छेड़ते, मन-वीणा के तार॥॥
शायद पिछले जनम की, रही लालसा शेष।
संध्या बेला में कहाँ? आ पहुँचा तव देश॥॥
सौम्य, सुशील, सुलोचनी, साहस कर्म प्रवीन।
रूप-सुध की धर में, मन भटकत ज्यों मीन॥॥
अबला जान न कीजिए, नारी सँग व्यवहार।
इक पल में धरण करे, चण्डी माँ अवतार॥॥
भारत-नारी की रही, सदा अलग पहिचान।
सतीत्व रक्षा के लिये, अगनित त्यागे प्रान॥॥
नर-नारी के बीच में, नाही कोई भेद।
नारी-शक्ति स्वरूप है, गाएँ ॠषि मुनि वेद॥॥
नर-नारी सहयोग से, जगत् होत गतिमान।
जीवन-गाड़ी के समझ, दोऊ चक्र समान॥॥
गोरे तन साड़ी लसै, सहज बैंगनी रंग।
प्रथम दरश गजगामिनी, कीन तपस्या भंग॥॥
गजगामिनी, मृगलोचनी, अधरा भरे पराग।
पिक बयनी तव दरस से, जागे सोये राग॥॥
होय सुजाति सुलक्षणी और गुनन की खान।
पर नर में अनुरक्ति यदि, समझो जीवन हानि॥॥
होय कुजाति कुलक्षणी, सकल गुनन ते हीन।
पति सेवा अनुरक्ति यदि, कृपा प्रभु की चीन्ह॥॥
नारी शक्ति-स्वरूपिणी, नारी सृष्टि अधर।
नारी बिन सम्भव नहीं, निराकार साकार॥॥
धीर, वीर, दृढ़ साहसी, त्याग, रूप आगार।
खोजे भूमण्डल कहूँ, मिले न भारत नार॥॥
नैन बड़े, गोरी त्वचा, देखत मन ललचाय।
मधुर मंद मुस्कान लखि, शेर श्वान बन जाय॥॥
वदन चंद नैना कमल, लंक वंक अति छीन।
नासाधर शुक, बिम्ब ज्यों, परसत होय मलीन॥॥
नैन सलौने, अधर मधु, नासा-श्रुत कमनीय।
चाल मस्त मृगराज सम, केहि चित चोर न तीय॥॥
कनक बदन नैना कमल, द्विज दुति दामिनी रूप।
वेधत निशि दिन काम-सर, युव जन रंजन रूप॥॥
ज्ञान, ध्यान, पूजन, भजन, नीति, तर्क, विचार।
नैन कौर वश में करे, पल में रूपसि नार॥॥
पुरुष प्रधान समाज ने, नारि उपेक्षा कीन।
साहस ज्ञान विवेक के, अवसर लीने छीन॥॥
भूल गए हम तथ्य यह, जन्म नारि आधीन।
धरती भाषा बुद्धि बिन, सब वैभव रसहीन॥॥
नारी के सम्बन्ध में, कैसी कुत्सित दृष्टि।
शैतां ने नारी रची, नर ईश्वर की सृष्टि॥॥
कभी सौम्य ममतामयी, कभी भरी अनुराग।
कभी पोडषी कामिनी, छेडे़ राग विहाग॥॥
सर्व कला सम्पन्न जो, नारी रत्न प्रवीन।
नेह नैन नारी विषय, ताहि समर्पित कीन॥॥
सुन्दर नारी से नहीं, भली जान-पहिचान।
मित्र भाव तड़पाय मन, शत्रु भाव ले प्रान॥॥
सुन्दर पत्नी पाय कर, मूरख मत इतराय।
अवसर पावत देयगी, मित्रहि शत्रु बनाय॥॥
नारी तन है अग्नि सम, नर घृत-कुम्भ समान।
निकट रहे मन नहि डिगे, याहि असम्भव जान॥॥
नारी स्नेह स्वरूप है, पुरुष विवेक स्वरूप।
दोनों सम पथ पर चलें, प्रगटे धर्म स्वरूप॥॥
पुरुष विवेक स्वरूप है, नारी स्नेह स्वरूप।
सहज संतुलित भाव से, प्राप्त होय निज रूप॥॥
शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
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