शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

हिन्दी दिवस पर

स्वधर्म स्वदेश सुराज का, निज भाषा आधार।
स्वाभिमान बिन जगत्‌ में, मिले नहीं सत्कार॥॥

दो दिन हिन्दी दिवस पर, होता जय-जयकार।
नेता, शासन बुद्धिजिन, सोवें पाँव पसार॥॥

राजनीति के जाल पड़, हिन्दी हुई कुरूप।
हंसी बगुलों में पफँसी, भूल गई निज रूप॥॥

मैकाले की सुरा का, मद नित बढ़ता जाय।
अर्ध सदी के आँकडे़ देखो तनिक उठाय॥॥

पुरस्कार, वेतन-बढ़त, विज्ञापन, परचार।
तुलसी सूर कबीर को, हिन्दी रही पुकार॥॥

दर्शन संस्कृति धर्म निज, वेद शास्त्र इतिहास।
निज भाषा जाने बिना, मिले न तत्व प्रकास॥॥

भारत जैसा विश्व में, मिले न दूजा देश।
पर भाषा में जो करे, निज भाषा उपदेश॥॥

हिन्दी में दस्तखत किये, लज्जा अनुभव होय।
विश्वमंच पर ढूँढिये, ऐसा मिले न कोय॥॥

काग नकल हंसा करे, अप संस्कृति की देन।
केक कटें दीपक बुझें, जन्मदिवस की रैन॥॥

हिन्दी से रोटी कमा, गावें इंगलिश गीत।
करें आचरण शत्रुवत्‌, हिन्दू-हिन्दी मीत॥॥

वेद, उपनिषद, शास्त्र सब भूल गए युवराज।
आयु, ज्ञान, सिद्धान्त सब, सौंपत लगी न लाज॥॥

मानव के व्यक्तित्व की, निर्मात्री हैं तीन।
धरा, धरणि, भाषा बिना, पशुवत जीवन दीन॥॥

हिन्दू हिन्दी छोड़कर, पर-भाषा अभिमान।
'जननी' पड़ी उपेक्षिता, 'आया' पावे मान॥॥

नाक, आँख, मुँह सिकुड़ते, सुन हिन्दी में बात।
आपफीसर इंगलिश जने, हिन्दी जने जमात॥॥

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