शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

आधुनिकता/पश्चिमीकरण

विश्वामित्र वशिष्ट की, भूल गये हम सीख।
काले गोरे बन गए, मैकाले की सीख॥॥

रुपया की कीमत गिरी, चीख उठा सब देश।
मानवता अवमूल्य की, नहिं चिन्ता लवलेश॥॥

सोना गया विदेश तो, सभी मचावत शोर।
पर विदेश घर-घर बसा, लखैं न उसकी ओर॥॥

सोना तो आ जाएगा, कुछ दिन की है बात।
पर विदेश की सभ्यता, जाती नहीं लखात॥॥

नर-नारी बालक-युवक, अज्ञ और विद्वान।
साँस-साँस में दे रहे, पश्चिम की पहिचान॥॥

गऊ माता विष्ठा भखे, श्वान मलाई खाँहि।
रूपवती वारांगना, सध्वा को लतियाँहि॥॥

सूकर, कूकर, अरु गध, मुरगी नसल सुधर।
मानव हित के नाम पर, लुभा रही सरकार॥॥

दिग्दर्शक अन्धे बने, रोगी करें निदान।
लाजवन्त दर-दर पिफरें, शठ निर्लज्ज महान॥॥

माता जी मम्मी बनीं, पिता बन गए डैड।
लंच, डिनर औ ड्रिंक्स बिन, लाइपफ वैरी सैड॥॥

कुत्ते बिस्कुट खा रहे, मरें मनुज बिन अन्न।
आई भली स्वतंत्रता, नेता जी को धन्य॥॥

देश-भक्ति के नाम पर, चहुँ दिसि माची लूट।
घर-घर में विकसित भई, गोरे बोई पफूट॥॥

अंगरेजों के राज में, निज धन गया विदेश।
पर स्वतन्त्र निज देश में, कितना धन है शेष॥॥

ध्वनि कर धुआँ बन गई तीस कोटि की रास।
नव कुबेर यों कर रहे, लक्ष्मी का उपहास॥॥

बिजली के लट्टू जलैं, दीपावलि के नाम।
दीप तेल सिर धुन रहे, ले नव युग को नाम॥॥

चाचा ताऊ व्यर्थ हैं, मामा-पूफपफा व्यर्थ।
सब सम्बन्धों के लिए, अंकल हुए समर्थ॥।

मानव से लेने लगी, प्रकृति अब प्रतिकार।
सावन में झर की जगह, चलती गरम बयार॥॥

सज्जनता का सब जगह, होता अब उपहास।
भाई-भाई का नहीं, करता अब विश्वास॥।

नून तेल आटा नमक, दिन-दिन मँहगे होत।
आधी जनता देश की, भूखी प्यासी सोत॥॥

युवा बहिन, रोगी पिता, पत्नी हो बेहाल।
गबन, घूस, चोरी नहीं, नाहीं बने दलाल॥॥

सत्य चरित ईमान की, तभी परीक्षा होय।
विषम घड़ी अवसर मिले, जब नहि धीरज खोय॥॥

भाई चारा, मनुजता, सच्चाई विश्वास।
शब्द कोश में जा बसे, तजि जीवन में आस॥॥

पफूले मक्का के नहीं, खाता सभ्य समाज।
पॉपकोर्न खाए मगर, निस्संकोच बिन लाज॥॥

'शापित' इस संसार में, दौलत का व्यौपार।
बिन धन मानव बिक रहे, हाँ कौड़ी के चार॥॥

कैसी हरियल तीज यह, चहुँ दिसि उड़ती धूल।
मानव वैज्ञानिक बना, प्रकृति ब्रह्म सब भूल॥।

चुवै पसीना गात ते, पल-पल सूखें होठ।
घायल सावन ने लई, ज्यों बैसाखी ओट॥॥

हिन्दुस्तानी बन गए, गोरेन की औलाद।
लंच, डिनर, रुचिकर लगे, नहीं रसोई स्वाद॥॥

जल वायु दूषित हुए जीवन हुआ अपंग।
नव औद्योगिक प्रगति से जीव जन्तु सब तंग॥।

ऑक्सीजन 'पर' हो गया, कार बनी अधिकार।
साँस-साँस पर मनुज का होता जीवन छार॥॥

युग करवट ने मनुज के, बदले सब व्यापार।
चिन्तन छोड़ा शास्त्र का, लिया हाथ अखबार॥॥

चरणामृत के बाद ही, करते थे भव काम।
चायं संग ही चाहिए, समाचार सुखधाम॥॥

रूप वस्त्र बिगड़े नहीं इसका अतिशय ध्यान।
मन औ बुद्धि बिगाड़ की, तनिक नहीं पहिचान॥॥

उठ प्रभात निज कर लखें, करें प्रभू का ध्यान।
कप दर्शन कर खोलते, नैना चतुर सुजान॥॥

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