मीठे वचन सुहात नहि, जो नहि अवसर होय।
चाँद सुध सम सरस हूँ, प्रिय बिछोह नहि सोय॥॥
शापित इस संसार की, कैसी अद्भुत रीति।
सच्चे मन को त्याग कर, करे झूठ सों प्रीति॥॥
नैन सलौने, अधर मधु, शापित कह कम कौन।
मीठा भावे लौन पर, अरु मीठे पर लौन॥॥
नैन मीन, कटि सिंहनी, कर पंकज अनुहारि।
कह 'शापित' क्यों नहीं चढे़, देखत ही शतमार॥॥
विषयी, कपटी, लालची, इनसे प्रेम न होय।
प्रेम करे कोई शूर ही, जीवन-दीप संजोय॥॥
सीधे को लतियाय जग, टेढे़ से कतराय।
वक्र चन्द्रमा को कभी, राहू गिरसै नाय॥॥
न्याय, नीति, अनुचित-उचित, सब दौलत के दास।
समरथ को कुछ दोष नहिं, कह गए तुलसीदास॥॥
धनी करे अपकर्म भी, पिफर भी धर्म कहाय।
कालिदास की उक्ति सच, सब गुण कंचन माय॥॥
कृषक और मजदूर का, शोषण सबहि दिखाय।
मूल चेतना के सृजक, पर नहिं दृष्टि जाय॥॥
अवगुन तो प्रकटै सदा, निजगुन लेय छुपाय।
आत्म विवेचन जो करे, सो मानव तरि जाय॥॥
खुर्दबीन कर में लिये, ढूँढें पर के दोष।
निज तन-मन मल से भरा, ताको नैंक न होश॥॥
गन्ने पर नहि पफल लगे, नहि चन्दन पर पफूल।
लक्ष्मी-वाहन दास को, मिले न शारद भूल॥॥
चमचों का नहि धर्म है, नहि चमचों की जात।
तलुए चाटें जीभ से, देखें भरी परात॥॥
दिवस, मास और साल सब, गए देखते बीत।
पग-पग पर जग में मिले, ठग ही बनकर मीत॥॥
नीच संग ते लगत है, बडे़-बडे़ कू दोष।
सागर रावन संग ते, बंध्यो राम के रोष॥॥
यथार्थ और आदर्श हैं, देश-काल सापेक्ष।
वर्तमान की तुला पर, इनहिं परख ना देख॥॥
हृदय और मस्तिष्क में, जब तब समता नाँहि।
कला और साहित्य रस, रेती माँहि विलाँहि॥॥
चाटुकारिता से मिले, पुरस्कार सम्मान।
स्वाभिमान औ साधना, की न आज पहिचान॥॥
स्वामिभक्त बन श्वानवत, दीजै पूँछ हिलाय।
पुरस्कार सम्मान सब, घर बैठे मिलि जाय॥॥
स्वामिभक्ति का मित्रवर, दौरा यदि पड़ जाय।
व्यक्ति, जाति, नेतृत्व तजि, सीमा हित बतियाय॥॥
यौवन के उन्माद में, भूल रहे पितु-मात।
सन्ध्या सम ठहरे नहीं, दोपहरी अरु प्रात॥॥
शिशुता माँ की गोद में, बचपन बापू साथ।
यौवन में पत्नी मिले, भूले पिछली बात॥॥
श्रद्धा भगती मनुजता, घर से दीन निकार।
प्रेम-भावना, धर्म सब, पैसा का व्यौपार॥॥
विपद-घड़ी में कौन जन, थामे किस का हाथ।
छाया तक देती नहीं, अन्धकार में साथ॥॥
विज्ञापन के सहारे, मिट्टी स्वर्ण कहाय।
मोती विज्ञापन बिना, कौड़ी मोल बिकाय॥॥
सहज सरल सतभाव के, जन मूरख कहलाँय।
कपटी, स्वार्थी, धूर्त सब, बुद्धिमान बन जाँय॥॥
सुख में सब अपने बने, दुख में बने ना कोय।
दुख में हाथ बटाय जो, समझो अपना सोय॥॥
सुख में संबंधी बने, दुख में जावे भूल।
ऐसे जन को त्यागिये, ज्यों मारग को शूल॥॥
दहेज विरोधी मच रहा, चारों दिसि ही शोर।
बिन सामाजिक चेतना, घटे न इसका जोर॥॥
भाग्य बड़ा संसार में, मान चहे मत मान।
मूरख पूजा जाय जग, पंडित कर अपमान॥॥
सत्य बोल भूखे मरो, पूछे यहाँ न कोय।
झूठे धेखेबाज की, नित नई सेवा होय॥॥
किसी द्वार पर जाय कर, माँगि लेहु दो टूक।
दो टुकड़ों की जगह अब, मिलि है ठोकर बूट॥॥
दुनिया भूखी अर्थ की, करे अर्थ से प्रीत।
बिना अर्थ पूछे न जग, स्वामी सेवक मीत॥॥
पाप-पुण्य की कोथरी, यों काँधे लटकाय।
दीखें अपने पुण्य सब, पर के पाप लखाँय॥॥
बीज करेला बोय जो, करत कदलि की आस।
विषय वासना भोगते, मिटत न अन्तर-प्यास॥॥
कोऊ न काऊ को सगो, सब स्वारथ आधार।
बडे़ लाभ के हित करें, लोग यहाँ उपकार॥॥
काम, क्रोध्, मद, लोभ अरु, ममता, मत्सर त्याग।
इन्द्रिन जो निज वश करे, घर रह सुख वैराग्य॥॥
बन बस यदि मन में रहें, काम क्रोध् मद लोभ।
व्यर्थ त्याग वैराग्य सब, व्यर्थ जगत् पर छोभ॥॥
जैसा खाए अन्न जन, वैसा बनता मन्न।
इन्द्रिय मन आधीन सब, करतीं पाप विभिन्न॥॥
माया अगनि समान है, इस बिन सरे ना काम।
पर विवेक-चिमटे बिना, होय नहीं कल्याण॥॥
अनुभव की अभिव्यक्ति जब, अन्तर में धुँधियात।
नरक-कल्पना जगत् में जीव तभी लखियात॥॥
काल पडे़ ही होत है, दाता की पहिचान।
युद्ध क्षेत्र ही वीर की, सत्य कसौटी जान॥॥
भीर पड़े पर मित्र अरु, निर्धनता में नार।
विपद काल में वंश का, मिलता असली सार॥॥
मनुज परीक्षा होत है, त्याग शील, गुण, कर्म।
कट, घिस, तप, पिट, जिमि नहीं, कंचन त्यागे धर्म॥॥
प्रतिहिंसा देखे नहीं, जाति कर्म गुण दोष।
घायल साँपिन सम डसे, अगनित जन निर्दोष॥॥
असमय प्रियजन का कहीं, छूट जाय जो साथ।
सुख दुख में ढल जात है, दिवस बनत है रात॥॥
'पर' में 'स्व' अनुभव किये, प्रतिपल बढ़े अनन्द।
'स्व' में 'पर' अनुभव किये, प्रतिपल बढ़ते द्वन्द्व॥॥
'परता' में 'निजता' लखे, जीव होय निर्द्वन्द्व।
'निजता' में, परता लखे, कटें न जग के बन्ध॥॥
विज्ञ मनीषी मनुज की, कहते श्रेणी चार।
उत्तम, मध्यम, नीच अरु, इक ब्रह्मज्ञ विचार॥॥
जीवत के संबंधि सब, मरे न पूछे कोय।
रूप शक्ति और ज्ञान-बल, दो कोड़ी कौ होय॥॥
साँच सबै प्यारो लगे, यदि 'पर' बारे होय।
पर 'निज' के संबंध में, सत्य सहन नहि होय॥॥
बात कहन और सुनन को, चस्का जिहि लगि जाय।
खुद तो डूबे साथ ही, दूजहि देत डुबाय॥॥
गाँठ हृदय की खुलत है, दोऊ जनन के बीच।
अनचाहो, तीजो मिले, मिले दूध ज्यों कीच॥॥
काम, क्रोध अरु लोभ हैं, तीन महान विकार।
काम, क्रोध, सीमा निहित, लोभ असीम अपार॥॥
वर्तमान है काम सुख, क्रोध भूत आधीन।
भावी चिन्ता लोभ की, जीव नचावहि तीन॥॥
मध्य रात कूकर अगर, मुख ऊपर करि रोय।
निश्चय जानो निकट ही अनहोनी कछु होय॥॥
सदा न पफूले केतकी, सदा न रहे बहार।
सदा न बादल बरसते, सदा न मिले दुलार॥॥
शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
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