शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

नश्वरता

इस चमड़ी की तीन गति, विष्ठा, माटी, छार।
मूरख विरथा मत करो, इस देही से प्यार॥॥

निर्धनता संसार में, सब पापों का मूल।
निर्दोषी दोषी बने, चले विश्व प्रतिकूल॥॥

बिन धन इस संसार में, जीवन है निस्सार।
बिना लवण व्यंजन सभी, धरे रहें बेकार॥॥

चपला की सी झलक यह, जाने कब छुप जाय।
'शापित' नश्वर देह पर, मत इतना इतराय॥॥

धन-सम्पत्ति, यौवन-विभव, चार दिवस का खेल।
'शापित' इन में मत भटक, काट मौत की बेल॥॥

बिन धन के जीवन नहीं, धन बिन धनी न होय।
बिन प्रकाश तम ना नसै, जब लगि सूर्य न होय॥॥

लाली देखत दीप की, शलभ गया चित हार।
पर निष्ठुर इस दीप ने, किया पलक में छार॥॥

बेला, चम्पा, चमेली, क्या गुलाब कचनार।
पफूल बनी कलियाँ झुकीं, निज यौवन के भार॥॥

इन पफूलों की झलक में, भूले मती पतंग।
चार रोज की चमक यह, सदा नहीं आनन्द॥॥

अगले पल की सुध नहीं, शत वर्षी सामान।
बाज शीश मँडरा रहा, समझ बूझ नादान॥॥

लख चौरासी में भटक, पाई यह नर देह।
हाड माँस मल मूत्र की, थैली पर पिफर नेह॥॥

छन छन छीजत देह नर, पल पल यम नियराय।
मूरख मन चेते नहीं, अधिक अधिक उरझाय॥॥

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