नैन बैन की माधुरी, समझें चतुर सुजान।
शत्रु-मित्र या जगत् में, कोई न इन सम आन॥॥
नैनन मग नैना मरे, अन्तर में धसि जाँहि।
ज्यों ज्यों इन्हें निकालिए, त्यों-त्यों भीतर जाँहि॥॥
नैना नैनन सों लगें, मन कौ छीनें चैन।
शिथिल गात, बुद्धि शिथिल, कल न परै दिन रैन॥॥
तोप तीर तलवार ते, जो जन डरपत नाँहि।
नैन बान के सामने, आवत हूँ घबराँहि॥॥
अँखियन चढ़ि मन पै चढ़े, पिफर नहिं भावे और।
आँखिन ते जो गिर गए, बिनकू कहूँ न ठौर॥॥
सजल नैन तव मद भरे, इस पल बिसरत नाँहि।
नेह सलिल ते हे सखी, सूखे तरु हिरयाँहि॥॥
दीरघ-मृग, कोमल-कमल, रतनारे तव नैन।
मीन चपलता हरि लई, कैसे लगे न मैन॥॥
प्रिय के बैठन हित दए, सुभग-सेज दो नैन।
पलक-कपाट लगाइ के, लूटो सुख दिन रैन॥॥
नैन मार के कारने, राम गए बनवास।
सूपनखा नकटी भई, रावण पायो नास॥॥
दुर्योध्न कू चुभ गए, द्रुपद सुता के बैन।
अन्धे के अन्धे भए, कह हँसि दीने नैन॥॥
अद्भुत गति नैनान की, का पे बरनी जाय।
आठ पहर बसरत रहें, तऊ न आग बुझाय॥॥
देखन में शीतल लगें, कोमल अरु सुकुमार।
तरुणी के नैनान ते, रवि हूँ मानी हार॥॥
सूरज तो ऊपर तपै, मनहि तपावें नैन।
स्नेह सलिल सीचें तरु, अन्य भाव उपजै न॥॥
सीधे नैनन ते बिंवधी, अन्तर मन की मीन।
तिरछे कर अब प्यार की, कसक न हे प्रिय छीन॥॥
निजता-परता, दीनता, द्वेष, शील, विश्वास।
लाख छुपाए न छुपें, नेना देते भाष॥॥
झर झर बदरी झर रही, गरज रहे घनश्याम।
जब ते तव नैना लखे, सोच रहे अन्जाम॥॥
शापित इन अँखियान की, देखी उलटी रीत।
प्रथम मिलन में होत हैं, इक दूजै के मीत॥॥
इन अँखियन सों क्या कहें, समझ नहीं कुछ आय।
आपस में ही लेत हैं, गुप-चुप कुछ बतराय॥॥
अँखियन का बिगड़े न कुछ, मन गरीब पफँस जाय।
नींद न आवे रात को, दिन में अन्न न भाय॥॥
शापित अँखियाँ बावरी, देखें शत्रु न मीत।
अनजाने कर लेत हैं, जीवन भर की प्रीत॥॥
नैनन के इस तीर से, मन-मृग बेधे जाँहि।
जीवत, मरत न छुटत जग, तड़पि-तड़पि रहि जाँहि॥॥
नैन भौंर को बुद्धि ने, समझाया बहु बार।
एक दिवस पफँस जायगा, अपत-कटीली डार॥॥
इन नैनन की दशा का, बरनन किया न जाय।
अनदेखे अकुलाँय अति, सम्मुख देखत नाय॥॥।
नहि जानत क्या सोच कर, ब्रह्म बनाए नैन।
वाणी से भी तेज अति, बिन वाणी के बैन॥॥
तीर तमंचा तोप अरु, हैं अनेक हथियार।
बिन गोली बारूद के, नैना डारत मार॥॥
सभी कहैं नैना खुले, जग का दर्शन होय।
मम-नैना दुश्मन हुए, खुलतहि कीन बिछोह॥॥
नैना दे प्रभुजी भला, किया कौन उपकार।
नैनन के संयोग से, जीवन बनता भार॥॥
सहस जनों के बीच में, एक मूर्ति की ओर।
अनायास खिंच जात हैं, क्यों ये नैन चकोर॥॥
शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
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