शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

वर्तमान में गुरु शिष्य का रूप

बिना अकल के नकल जो, करनी देय बताय।
ऐसे चिन्तक गुरु के, चेला बलि-बलि जाय॥॥

चेला से गुरु को अधिक, चेली आज सुहाय।
चेला धेला में ठगे, चेली धेली लाय॥॥

गुरु बन कर यदि शिष्य का, हरा नहीं अज्ञान।
गौ हत्या से भी समझ, यह अपराध महान॥॥

ज्ञान-ज्योति का अरुण बन, खींचे रथ अज्ञान।
उस जैसा मूरख नहीं, इस दुनिया में आन॥॥

गुरू-गुरू की कूक से, गुरुता आवत नाय।
नाम नैनसुख हूँ धरे, अन्धे को न दिखाय॥॥

कभी-कभी के दिन बड़े, कभी-कभी की रात।
शिष्य गुरुहि उपदेश दे, यह कलियुग की बात॥॥

पुस्तक पढ़ि गुरु बन गए, पर गुरुता नहि पास।
धन की खातिर बिक रहे, शिष्य करें उपहास॥॥

शिक्षक व्यौपारी बने, गुरु का नाम लजाँय।
स्वयं भटक तम में रहे, कैसे दिशा दिखाँय॥॥

चिन्तन मनन बिसार के, भजें सिर्पफ कलदार।
नाव पफँसी मझधर में, कौन लगावे पार॥॥

शिष्य गुरु के बीच की, छूट गई मर्याद।
शिष्य द्वार पर अब करें, गुरू खड़े पफरियाद॥॥

शिष्य समय निश्चित करे, कल पढ़ना अब नाँहि।
हाँ जी, हाँ जी गुरु करे, नहि टूशन छुट जाहि॥॥

रोजनदारी कर रहे, शिक्षा के आधर।
चिन्ता में माँ शारदा, कैसे हो उद्धार॥॥

कक्षा में माँ बहिन की, बालक करते बात।
गुरुवर बैठ बरामदे, पीवें नम्बर सात॥॥

बी.ए. एम.ए. पास कर, शुद्ध न लिखना आय।
ज्ञान ज्योति 'पर' को कहाँ, निज तम ही न नसाय॥॥

खड़े-खड़े गुरु भौंकते, शिष्य बैठ मुस्काँय।
अर्थकरी विद्या भई, काहे को शरमाँय॥॥

गहन ज्ञान गठरी लिये, कोई गुरु मिल जाय।
कर कुतर्क लज्जित करे, दे तारी भग जाय॥॥

कुम्भ-कुम्हार सम नहीं, अब शिष्य-गुरु सम्बन्ध।
आज परीक्षा पास हित, होता है अनुबन्ध॥॥

लिखा-लिखा के जो गुरु, उत्तर देत रटाय।
मरी गाय की पूँछ से, वैतरणी तरि जाय॥॥

वेद शास्त्र अरु उपनिषद, धर्म पुरानन ज्ञान।
बिन समझे शिक्षक कहें, यह सब अब अज्ञान॥॥

निर्माता ही देश के, चाटुकार बन जाँहि।
एक प्रशस्तिपत्र हित, चरनन में गिर जाँहि॥॥

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