शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

तुलसी स्वरूप परम पूज्यपाद श्री रामकिंकर जी महाराज

देव वन्दन

प्रथम पूजि गजवदन को, चरण कमल चित लाय।
सतसैया प्रस्तुत करूँ, कीजै देव सहाय॥॥

सब देवों में पूज्य जो, शिव के पुत्र उदार।
लज्जा मेरी राखिये, मूषक के असवार॥॥

नहि कविता का ज्ञान कुछ, नहि कुछ छंद विचार।
हंस वाहिनी मात निज, हाथ शीश मम धर॥॥

कर वीणा पुस्तक धरे, अन्य हस्त है माल।
कृपा-दृष्टि हो जाय यदि, मूक होय वाचाल॥॥

मानव-मन पाषाणवत, संयम छैनी-धार।
बुद्धि हथौड़ा ज्ञान-गुरु, प्रतिभा रचे सुधार॥॥

श्रीगुरु चरण नवाय सिर, और गणेश मनाय।
सतसैया के सृजन में, शारद करो सहाय॥॥

मात भगवती शारदा, क्षमा करो मम दोष।
शिथिल लेखनी में भरो, माँ थोड़ा सा जोश॥॥

माता तेरी कृपा ते, बनत असम्भव काज।
बुद्धिहीन या दास की, हाथ तिहारे लाज॥॥

विद्या बुद्धि स्वरूपिणी, वाणी की दातार।
दीन-हीन या जीव कौ, बेड़ा कीजै पार॥॥

विषयी, लम्पट, दीन के, घर में बैठो आय।
वर्ण-शब्द-ध्वनि-भाव-रस, लेखनि में बसि जाय॥॥

हे माता परमेश्वरी, शक्ति रूप गुन खान।
मोह मुक्त कर दीजिये, छूटे मिथ्या मान॥॥

सबते भोले देव शिव, याहि लेहु पतियाय।
आक, धतूरा अंजुली, भर बस दूध चढ़ाय॥॥

जा पर कृपा न करें शिव, वह न राम-रज पाय।
औघड़दानी लीजिये, 'शापित' को अपनाय॥॥

औघड़ दानी परम्‌ शिव, राम चरण रति देउ।
राम कथा गुन गान हित, अज्ञ हि शक्ति देउ॥॥

गुरु, गणेश, शारद सुमरि, शिव चरणन धरि शीश।
राम कथा बरनन चहूँ, किरपा करहु कपीश॥॥

जा पर कृपा न होय तव, रामशरण नहि पाय।
बुद्धि पुंज, अंजनि सुवन, कीजै स्वामि सहाय॥॥

मैं, पापी, कपटी, छली, औरहुँ अगनित दोष।
मात-पिता शिशु पर कभी, भूल न करते रोष॥॥

मेरी भव चिन्ता हरो, हे कौशलपति भूप।
तजत शत्रुहू शत्रुता, देखत ही तव रूप॥॥

कौशल्या माता सुमरि, लै कैकई अशीष।
मात सुमित्रा चरणरज, धरण कर नीज शीश॥॥

श्रुतिकीरति और माण्डवी, उर्मिलपद सिरनाय।
जनक नन्दिनी जानकी, कीजै दास सहाय॥॥

जनक नन्दिनी जानकी, जगत्‌ जननि प्रभु-शक्ति।
कामी-पापी मूढ़ को, दीजै गुरु की भक्ति॥॥

महाराज दशरथ सुमरि, लव-कुश शीश नवाय।
पवन-पुत्र हनुमान प्रभु, हृदय विराजो आय॥॥

कर नव-ग्रह की वन्दना, दशदिशि शीश नवाय।
लखन, शत्रुघ्न भरतजी, कीजै दास सहाय॥॥

राम की डोर गहि, मनुआ मत अकुलाय।
पशु-पक्षी तक तरि गए, ग्रन्थन देख उठाय॥॥

तुम अति दीन दयालु प्रभु, मैं अति अज्ञ लबार।
पाप नदी की भँवर में, नौका बिन पतवार॥॥

ईश कृपा

'शापित' क्यों चिन्ता करे, तव चिन्ता बेकार।
बिन हरि कृपा न होय कुछ, लाख मरो सिरमार॥॥

भावी होने को बनी, टलती कबहूँ नाय।
रोवन हित नैना मिले, कैसे तब मुस्काय॥॥

जीवन के दिन चार हैं, मन कर लेहु विचार।
पिफर नहि आवे यह घड़ी, रे मन प्रभुहि पुकार॥॥

'शापित' इस संसार में, सभी तरह के लोग।
प्रभु का भजन बिसारि कर, चाहत हैं सुख भोग॥॥

आँधी आवत प्रेम की, मन उड़ जाय अकास।
जीव-ब्रह्म से जा मिले, यदि हो सच्चा दास॥॥

बिनु प्रभु कृपा न गुरु मिले, गुरु बिन मिले न ज्ञान।
जैसे बिन सूरज उगे, होय न निशि अवसान॥॥

जन्म मरण सम ही नहीं, सत्संगति निज हाथ।
प्रभु कृपा और भाग्य बस, होय संत जन साथ॥।

जप व्रत पूजा पाठ अब, छूटे सब आधार।
एक आस प्रभु कृपा की, गुरु चरनन उद्धार॥॥

गुरुजन आवत देख कर, सादर करे प्रणाम।
आयु विद्या बल बढे़, होय जगत्‌ में नाम॥॥

अल्पज्ञान भी मिला हो, गुरुवत उसको मान।
किये अनादर होय वह, चाण्डाली घर श्वान॥॥

सभी निरोगी अरु सुखी, सभी भद्रता युक्त।
परहित रत निशिदिन रहें, करें कष्ट से मुक्त॥॥

जन-मन दुर्जनता मिटे, सज्जनता बसि जाय।
सत्य-अहिंसा क्षमा के, सुमन हृदय खिल जाँय॥॥

मनसिज सुख चिन्तन किये, जड़वत होती बुद्धि।
दीन बन्धु चरण रज, होय अहल्या शुद्धि॥ ॥

पथ परमारथ अति सरल, लोक पंथ अति शूल।
क्षमा करें, प्रभु भूल सब, लोक दण्ड प्रति भूल॥॥

विविध रूप धन के यहाँ नहि सन्तोष समान।
जब आवे सन्तोष मन, कृपा प्रभू की जान॥॥

गुरु-कृपा

गुरु अनुकम्पा से बनें, जग के बिगड़े काम।
मो से दुर्जन अज्ञ पर, कृपा करी प्रभु राम॥॥

राम कृपा ते भक्ति का, जो कुछ चाखा स्वाद।
दिशा 'कटारा' जी दई, 'किंकर' ज्ञान प्रसाद॥॥

गुरु ने महती दया कर, दीनी राह विवेक।
मैं कामी अति मन्द मति, चला नहीं पग एक॥॥

इत-उत मन भटकत रहा, कहीं मिला नहीं सत्य।
इन दिन गुरु ने कृपा कर, समझाया भव तथ्य॥॥

गुरु चरनन में प्रेम कर, जैसे चन्द चकोर।
कृपा-कटारी काटिहै, भव-बन्धन की डोर॥॥

बिन गुरु कृपा नहि मिले, वेद-शास्त्र का सार।
लाख जतन कर लीजिए, पढ़ लीजै सौ बार॥॥

बिनु गुरु कृपा न भ्रम मिटे, तेहि बिन होय न ज्ञान।
ज्ञान बिना विश्वास नहि, तेहि बिन मिलहि न राम॥॥

चहुँ दिसि प्रभु ढूँढत पिफरो, मिले झलक तक नाय।
गुरु किरपा, श्रद्धा, लगन, पिण्डे ही मिल जाय॥॥

जन्म-मरण निज वश नहीं, निज वश नहि सत्संग।
गुरु किरपा अरु भजन बिन, मिटे न कलि का जंग॥॥

गुरु कृपा उपजै भगति, भगति किए हो ज्ञान।
ज्ञान-ध्यान बन्धन कटैं, दरसन दें भगवान॥॥

मैं-हम की रसरी बटे, सुत-दारा सुख आस।
गुरु अनुकम्पा भगति बिन, कटे न जीवन पाश॥॥

बिन गुरु कृपा न भासते, घट-घट वासी राम।
जीव मात्र का हित किये, मिले अमित विश्राम॥॥

बिनु गुरु कृपा के गति नहिं, गुरु बिन मिलहि न ज्ञान।
बिनु गुरु कृपा न प्रभु द्रवहिं, मिलहि न पल विश्राम॥॥

इन्द्र जाल सम जगत्‌ में जीव रहा भरमाय।
गुरु ज्ञान अंजन मिले, पल में भ्रान्ति नसाय॥॥

गुरु वन्दन

बंदऊँ गुरु तव कमल पद, हे प्रभु 'मोहन' रूप।
शीघ्र उबारो नाथ अब, पड़ा अज्ञ भव-कूप॥॥

दृढ़ श्रद्धा विश्वास से, गुरु का कीजै ध्यान।
मोह मुक्त कर भक्ति का, गुरुवर दें वरदान॥॥

मन पावन हो ज्ञान से, धन की सदगति दान।
गुरु-सेवा, सत्संग से, मिले मुक्तिपथ धाम॥॥

ध्यान रखो गुरु चरन में, करो सकल निज कर्म।
स्वाति बूँद पपिहा तपै, घट परिहारिन मर्म॥॥

राम कथा की मित नहीं, कहें अनादि अनन्त।
तुलसी 'किंकर' रूप में, पूजत विद्वत संत॥॥

बाल्मीकि तुलसी भये, तुलसी 'किंकर राम'।
राम कथा बिन नहि कटें, रोग खोट विश्राम॥॥

'गुरु किंकर' अपनाय कर, दीना जनम सुधर।
निश्चित अगले जन्म में, मिले राम का द्वार॥॥

बिनु गुरु कृपा न अघ नसहिं, मन न होय निष्काम।
काम-युक्त मन में कभी, बसहिं न 'किंकर-राम'॥॥

गुरु महिमा

गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु है, गुरु ही जान महेश।
गुरु महिमा नहीं कह सकें, सहस शारदा शेष॥॥

ब्रह्मा जी सृष्टि रचें विष्णू रक्षा कार्य।
प्रलय कार्य शंकर करें, सद्गुरु तीनों कार्य॥॥

गुरु-ज्ञान प्रतिरूप है, गुरु ब्रह्म और ईश।
गुरु अनुकम्पा के बिना, मिलें नहीं जगदीश॥॥

गुरु समझो उस व्यक्ति को, जिसका तन-मन एक।
करनी-कथनी एक सी, बात कहे सविवेक॥॥

जीव-ब्रह्म और जगत्‌ का, गुरु दे भेद बताय।
दरस-परस से हृदय का, कल्मष देय भगाय॥॥

गुरु वाणी का भूलकर, करो नहीं अपमान।
सात जन्म में भी नहीं, होगा पिफर कल्याण॥।

बिना गुरु के गति नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान।
निगुरा इस संसार में, जैसे सूकर, श्वान॥॥

गुरु बिन ज्ञान न होय मन, तेहि बिन मोह न भाग।
मोह गए बिन कल्प सत, होय न दृढ़ अनुराग॥॥

शिव सम अवगुन नष्ट कर, पोषे विष्णु समान।
ब्रह्मा सम सर्जन करें, मन में भगती-ज्ञान॥॥

गुरु महिमा की मित नहीं, गावत वेद पुरान।
भट्ट निरक्षर भी भए, कृपा-कोर विद्वान॥॥

अन्ध्कार-अज्ञान-निशि, गुरु-रवि देत नसाय।
बिनु दिनेश नहि तम नसै, कीजै कोटि उपाय॥॥

पूर्व पुण्य प्रारब्ध से, पावे गुरु-आशीष।
गुरु अशीष अरु कृपा से, द्रवैं राम जगदीश॥॥

परम मंत्र विश्वास है, गुरु-मुख निकला शब्द।
दृढ़ निश्चय नियमित जपै, व्यक्त होय अव्यक्त॥॥

राष्ट्र महिमा

निज संस्कृति के ज्ञान बिन, बने न देश महान।
वेद, उपनिषद् भागवत, गीता, गंगा-ज्ञान॥॥

नए वर्ष का हो गया, अर्ध रात्रि प्रवेश।
मानवता सद्भाव की, वृद्धि करें गणेश॥॥

नव-प्रभात गुरुवार का, ले आया नव वर्ष।
स्थायी हो सरकार तो, सम्भव जन-उत्कर्ष॥॥

भारत-रज-चन्दन बसे, स्वर्ग बसे हर गाम।
हर बाला सीता यहाँ, बच्चा-बच्चा राम॥॥

गंगा तट है ज्ञान का, यमुना कर्म अधर।
मर्यादा की प्रेरणा, देती सरयू धर॥॥

उत्तर दिशि नगराज हैं, दक्षिण सिंधु महान।
अटक-कटक के बीच में, बसता हिन्दुस्थान॥॥

रहा विश्व में राष्ट्र का, राज्य मूल आधर।
शक्ति भारत राष्ट्र की, दर्शन धर्म-विचार॥॥

गंगा-यमुना सरसुती, कावैरी औ सिन्धु।
ब्रह्मपुत्र औ नर्मदा, पुण्य लाभ के बिन्दु॥॥

महानदी, गोदावरी, कृष्णा दक्षिण प्राण।
शुभ दामोदर कुण्ड से, गण्डक बही महान॥॥

गीता महात्म्य

वेदोपनिषद् पुरान सब, समझो ब्रह्म स्वरूप।
गीता में प्रभु ने स्वयं, प्रकट किया निज रूप॥॥

गीता ज्ञान प्रबोधिनी, सब ग्रंथों का सार।
एक-एक अध्याय सुन, अगनित जनमा पार॥॥

गंगा महिमा

गंगा जल है औषधी, वैद्य प्रभु श्रीराम।
अनुपान विश्वास से, कटे व्याधि की दाम॥॥

गंगा मात्र नदी नहीं, जीवन दर्शन सार।
सारे भारत देश की, जनता की आधार॥॥

गंगाजल धर शीश पै, करते हलके पाप।
ता कूँ ही मल मूत्र तै, दूषित करते आप॥॥

अस्थि-भस्म कौ विसर्जन, इक सीमा तक ठीक।
समय संग बदलो दिशा, तोड़ो पिछली लीक॥॥

गंगा माँ की होत है, याते तनिक न हानि।
हम तो भोग रहे कहा? भोगेंगी सन्तानि॥॥

हर हर गंगे कह रहे, गोता सभी लगाय।
पर गंगा की विथा कूँ, कोऊ समझे नाय॥॥

गंग नहाए हरि कहे, घटे न मन को मैल।
बिन गुरु औ सत्संग के, मिले न सूधी गैल॥॥

विष्णुपदी, भगीरथी, जटा शंकरी नाम।
वर्तमान या रूप ते, पाओगे सुरधाम॥॥

जितने तारे गंग माँ, उतने तारे नाहि।
मो पापी की हूँ करो, गिनती उनके माँहि॥॥

अज पृष्ठे विष्णू गले, मुख में रुद्र निवास।
मध्य भाग गौ रोम में, करें देवता वास॥॥

अंक महिमा

॥एक॥
ब्रह्म एक, जिव एक है, भारत भू जग एक।
जाति, धर्म, पाखण्ड सब, मनुज, धर्म, सच एक॥॥

॥दो॥
देव-दनुज, माता-पिता, ब्रह्म-जीव सब दोय।
हानि-लाभ, सुख-दुःख में, सम हो ज्ञानी सोय॥॥

॥तीन॥
ब्रह्मा-विष्णु-महेश त्रय, सत-रज-तम गुण तीन।
मनसा-वाचा-कर्मणा, एक होय गति दीन॥॥

॥चार॥
चार वेद, युग चार हैं, वर्णाश्रम भी चार।
चार परम पुरुषार्थ हैं, मुनि जन कहें विचार॥॥

॥पाँच॥
पञ्च तत्व सुख कर्म हित, दीनी इन्द्रिय पाँच।
मुक्ति मिले अभिमान तज, ईश्वर इच्छा नाच॥॥

॥छः॥
षट् दर्शन, षट् जीभ-रस, षडॠतु, षड्-रिपु जान।
गुरु सेवा सत्संग से, ज्ञान दृष्टि पहचान॥॥

॥सात॥
लोक, ॠषि, दधि सात हैं, भाँवर सात प्रमान।
सुर नर अरु गंर्ध्व सब, करें सप्त स्वर गान॥॥

॥आठ॥
अष्ट योग, सिद्धि अष्ट हैं, आठ पहर दिन-रात।
बाज झपट ले जाय कब, प्रतिपल भज रघुनाथ॥॥

॥नौ॥
नवविधि नौ ही भक्ति-पथ, नवग्रह, नौ ही द्वार।
महिमा अमित नवांक की, देखो हृदय विचार॥॥

॥दस॥
दस दिशि और दस मास सम, अद्भुत दस अवतार।
'गुरु किंकर' के रूप में, पवन-पुत्र साकार॥॥

भक्ति

भक्ति रंग मन पर चढे़, भव सुख नाँहि सुहाय।
जब तक मन भव सुख रमे, भक्ति नहीं हो पाय॥॥

को न ग्रसित लालच प्रकृति, काहि न रूप लुभाय।
संतोषी हरिभक्त पर, इनका वश न चलाय॥॥

ब्रह्म ज्ञान ऊधे दियो, गोपिन पै बरसाय।
भरी प्रेम रस गागरी, यह रस कहाँ समाय॥॥

सिर पर मटका हाथ रजु, सखी संग बतियात।
मटका मन कुँ सौंप के, तन इठिलावत जात॥॥

इच्छा दुख का हेतु है, इच्छहि लीजै जीत।
त्याग जगत्‌ की लालसा, प्रभु चरनन कर प्रीत॥॥

जीवन गति का नाम है, आलस मृत्यु समान।
छन छन छीजत जाय तन, शापित कर अनुमान॥॥

लोभी प्रेम न पा सके, लम्पट यश नहि पाय।
प्रेम-सुयश ताकू मिले, परहित निज बिसराय॥॥

'मैं', 'मेरे' के पफेर में, पडे़ रहे दिन रैन।
'शापित' ऐसे जन नहीं, पावें पल भर चैन॥॥

बिना मोल के प्रभू ने, दीने तत्त्व अमोल।
पलभर वा की याद कर, पगले आँखें खोल॥॥

राम

कलियुग वैतरणी नदी, विषय-भँवर गहराय।
राम-नाम माँ गऊ की, गहो पूँछ हरषाय॥॥

राम रसायन के बिना, कटें न भव के रोग।
प्रभु इच्छा मन में समझ, सहो हर्ष अरु शोक॥॥

राम नाम नौका सुदृढ़, गुरु-मंत्र पतवार।
कर निश्चय निसि दिन जपै, हो भवसागर पार॥॥

राम नाम बिन साँस जो, प्रति पल खाली जाय।
काम, क्रोध्, मद, लोभ की, कीचड़ में लिपटाय॥॥

पापपुंज कौ तिमिर जब, मन में बैठा आय।
नाम-दीप के जरत ही, पलभर में हट जाय॥॥

मानव जैसी देह यह, पिफर मिलने की नाय।
छोड़ जगत्‌ का आसरा, राम जपो सत भाय॥॥

भाव-सूत्र में नाम की, मुक्ता लेउ पिरोय।
विद्युत आभा क्षणिक है, पफेर अन्धेरो होय॥॥

श्याम सलोने गात की, अति अद्भुत है ज्योत।
श्याम रंग में जो रंगे, तनमन उज्ज्वल होत॥॥

राम-राम सब रटत हैं, लखैं न प्रभु के कर्म।
पशु-पक्षी और भीलनी, का पहिचानो मर्म॥॥

काम, क्रोध्, मद, लोभ में, भटक मर रहे लोग।
राम-रसायन के बिना, कटें न भव के रोग॥॥

राम-राम भज राम भज, राम-राम कह राम।
धन, वैभव वनितादि सुत, अन्त न आवैं काम॥॥

राम बनाए ही बनें, बिगड़े उलटे काम।
तू तो मात्र निमित्त है, कर्ता प्रेरक राम॥॥

जहाँ राम तहँ 'मैं' नहीं, जहँ मैं तहाँ न राम।
'शापित' दोनों ना मिलें, निशि-पतंग इक ठाम॥॥

सभी नाम भगवान के, सब से सीध राम।
ज्यों हाथी के पाँव में, होवे सब का पाम॥॥

जीवन संध्या में प्रभू, निज घर लेउ बुलाय।
सरयू जी गोता लगा, जनम पीर मिट जाय॥॥

गुरु सेवा, प्रभु कौ दरस, अरु सरयू का स्नान।
अन्त समय यदि मिल सके, निश्चय मुक्ती जान॥॥

राम नाम ते होत हैं, भव बन्ध्न सब धूर।
जीवन सुख सम्पति मिले, अन्त दूत यम दूर॥॥

धन से सुख विद्या मिले, पर न मिले आनन्द।
राम-कृपा बिन ना कटें, भव सागर के पफंद॥॥

राम कहे धन ना मिले, धन ते मिले न राम।
राम बिना धनपति बने, मिलहि न छन बिसराम॥॥

भूत शूल, भावी कुसुम, प्रति मन करहिं निवास।
लाख जतन कीजै मगर, मिटहि न इन कर त्रास॥॥

स्वप्न झूठ नैना खुले, नैन मुदे जग झूठ।
सत्य नाम श्री राम का, गुरु अनुकम्पा लूट॥॥

मनु शतरूपा ने किया, अवधपुरी जब वास।
पुत्र रूप प्रभु प्रकट हो, पूरी कीनी आस॥॥

वर्णाश्रम पालन करें, नीति प्रीत के साथ।
रामराज्य की कामना, पूरी की रघुनाथ॥॥

मुनि-पत्नी पत्थर बनी, देखउ काम प्रभाव।
करुणालय प्रभु चरण-रज, भरे वेदना घाव॥॥

पुत्र-पती, स्वामी-सखा, शिष्य, भ्रात भगवान।
सब ग्रन्थन में ढूँढ के, लाओ राम समान॥॥

श्याम

अँचरा ओटक कान्ह कूँ, मैया दूध पियात।
द्वार नन्द बाबा ठडे़, सैनन ही बतरात॥॥

घुटअन चलि-चलि कान्ह अब, लागो ठाड़ो होन।
मात जसोदा वारती, राई मिरची नोन॥॥

सरपट आँगन में पिफरे, चौखट पै गिर जाय।
लीला देखत श्याम की, ब्रह्मादि सकुचाँय॥॥

घर ते बाहिर खेलिबे, मैं नहिं जाऊँ मात।
मोल कंजरी ते लियो, दाऊ मोहि बतात॥॥

मोकू तू हटकत सदा, वा कू डाँटत नाय।
जान परायो भेद कछु, तेरे मनहु लखाय॥॥

माखन रोटी देत ना, काचो दूध पियात।
चोटी तनिकहु ना बढ़ी, झूठ बोल बहकात॥॥

मैं माखन खायो नहीं, साँच कहूँ मैं मात।
ऊँचे छींके पै कहाँ, पहुँचें नन्हे हाथ॥॥

तू मैया अति सूध्री, ग्वालिन परम लबार।
खटकत आँखिन में सदा, इनकी तेरो प्यार॥॥

घर अपने जे लै गई, मोकू आप बुलाय।
माखन दही खबाय के, छाती लियो लगाय॥॥

चन्द्रमुखी मृग लोचनी, मंगल बिन्द ललाट।
राधा परिचय करन हित, खोजत मोहन बाट॥॥

नीति और व्यवहार

निज में कर्ताभाव का, मत कीजै अभिमान।
अहंकार का भाव ही, है सब दुख की खान॥॥

इन्द्रिय-सुख के हित किये, जीवन-भर सब काम।
भोजन-निन्द्रा, भोग में, नर, पशु एक समान॥॥

आत्म अंश है ब्रह्म का, ब्रह्म सच्चिदानन्द।
चित्‌ सत्‌ को जब जान लें, अनुभव परमानन्द॥॥

कमल-नाल सम जो रहे, विषय वारि के बीच।
निर्विकार निष्पाप शुचि, यद्यपि जननी कीच॥॥

इन्द्रिन को रख कर्मरत, मन से सुमिरो राम।
ज्ञान-पिपासू बन करो, जग के सगरे काम॥॥

देख जगत्‌ की सम्पदा, मन ललचावे नाहि।
सत्पथ चल सूखी मिले, हर्षित मन से खाहि॥॥

होनहार होकर रहे, मेट सकै नहि कोय।
मन-मूरख मत हो दुखी, राम करें सो होय॥॥

मनुआ क्या पफूला पिफरे, देख बढ़ा कुल-गोत।
इस भव-पारावार में, तव जीवन लघुपोत॥॥

जीवन रूपी पुष्प यह, खिलना है दिन चार।
जी चाहे छल-कपट कर, चाहे कर उपकार॥॥

पफूल खिलत, पफल देत तरु, नभ घन बरसत आय।
बिना स्वारथ परहित किये, सब विकार मिट जाय॥॥

तीन शत्रु हैं जीव के, काम, क्रोध अरु लोभ।
क्षण भर में ही करत हैं, ज्ञानी, मुनि मन छोभ॥॥

काम शक्ति आधीन है, शक्ति काल आधीन।
समय संग यौवन ढलै, नारि तजै बलहीन॥॥

वर्तमान में काम सुख, भूत, भविष्यत नाहि।
वर्तमान जो साध ले, गत आगत सधि जाहि॥॥

नैन, नासिका, कान, मुख, हाथ, पाँव कर एक।
कर्तापन के मोह पड़, भूले कर्ता एक॥॥

भक्ति-ज्ञान-वैराग्य मिल, प्रकटे धरि नर रूप।
कथा-सुध सेवन किये, जीव मुक्त भव-कूप॥॥

सत्य मार्ग पर अकेले, चलते आए संत।
मिली सपफलता देर में, हुआ बहुल का अंत॥॥

नाम ज्ञान आधर है, नाम रूप गुन खान।
जड़-चेतन की नाम से, ही होती पहिचान॥॥

गंगाजल डुबकी लगा, कर गायत्री ध्यान।
जीव पा सके ब्रह्म को, चल गीता के ज्ञान॥॥

समय नदी में जीव सब, गोता रहे लगाय।
त्याग पुरातन अन्त में, नूतन पहिरे जाय॥॥

साँस-सूत से मिल रहे, जीवन रूपी वस्त्र।
जीव नित्य शाश्वत अमर, जाहि न काटे अस्त्र॥॥

दीन जान मत कीजिये, भूले हू अपमान।
मावस-पूनो, रात-दिन, होय न एक समान॥॥

दीन जान मत कीजिये, मानव का अपमान।
जीव अंश परमात्म का, प्राणी सभी समान॥॥

हाथ जोड़ सबकूँ नमन, करो सदा सतभाव्य।
न जाने किस रूप में 'शापित' प्रभु मिल जाय॥॥

अति परिचय ते जाय घटि, मानव का सम्मान।
काऊ के घर मत बनो, नित्य जाय मेहमान॥॥

दोष न काहू दीजिये, भूल करहु मत व्यंग।
चार दिनन की जिन्दगी, हँस मिल कीजै संग॥॥

रामू, दीनू, घसीटा, रामकली सुकुमार।
एक प्रभु के अंश सब, भूले मत दुत्कार॥॥

दीन जान मत कीजिये, काहू को अपमान।
बाहर अन्तर रंग के, माटी एक समान॥॥

ऊपर देखे दुख लगे, नीचे लख अभिमान।
पर-गुन निज-अवगुन लखो, दर्शन यही महान॥॥

भूले कीचड़ में कभी, ईंट पफैंकिये नाँहि।
छींटे तुम पर पड़ेंगे, समझ लेउ मन माँहि॥॥

दान, पुण्य, भोजन, भजन, कीजै बित्त समान।
बित्ते से बाहर हुए, उलटे हों परिणाम॥॥

जीना जग में चार दिन, क्यों न करो उपकार।
कितने जग में दीन जन, देखो आँख पसार॥॥

यदि होवे सामर्थ्य तो, कर परिजन उपकार।
विश्व समझ निज कुटुम्ब सम, कर सबसे ही प्यार॥॥

मित्रभाव समझे बिना, मित्र बनो मत कोय।
हानि उठा, अपयश सहे, मित्र सो विरला होय॥॥

गुन प्रकटे, अवगुन छुपा, सत्पथ देय दिखाय।
शक्ति, समय, अनुसार ही, करता मित्र सहाय॥॥

सेवक, शठ, अरु कृपन नृप, दुराचारिणी नार।
कपटी मित्र को जानिए, अपत कटीली डार॥॥

मित्र करे जब शत्रुता, रिपु भी देख लजाँहि।
मिले न सच्चा मित्र अब, अर्थ-बुद्धि युग माँहि॥॥

कपटी मित्रों की लगी, आज चहूँ दिसि भीर।
पानी भी जहँ नहि मिले, तहँ मारे बेपीर॥॥

निज मुख निज करनी कथे, ज्ञानी वह न कहाय।
हीरा निज मुख से कभी, अपने गुन न बताय॥॥

दान किये यश मिलत है, लोभ मिलत है पाप।
परहित मानवता लसै, प्रभु मिलें लखि आप॥॥

बिगड़ी सदा रहे नहीं, सदा न बनती बात।
सूखे होते पिफर हरे, ज्यों तरुवर के पात॥॥

हिन्दू-मुस्लिम एकता, मची दुहाई देश।
कैसे सम्भव होय यह, मिले न भाषा वेश॥॥

वैस वेश बनाइये, जैसा होवे देश।
इस समरसता के बिना, क्या घर क्या परदेश॥॥

धन कुटिलाई योग से, बिके न्याय जिस देश।
सर्वनाश निश्चित समझ, सिर पर खडे़ कलेश॥॥

चापलूस औ साँप यदि, मारग में मिलि जाँय।
चापलूस को दीजिये, पहले स्वर्ग पठाय॥॥

बुरा कहे से किसी के, बुरा तनिक मत मान।
सभी जिसे अच्छा कहें, ऐसा कौन महान॥॥

लोक व्यवहार/मान्यताएँ

मीठे वचन सुहात नहि, जो नहि अवसर होय।
चाँद सुध सम सरस हूँ, प्रिय बिछोह नहि सोय॥॥

शापित इस संसार की, कैसी अद्भुत रीति।
सच्चे मन को त्याग कर, करे झूठ सों प्रीति॥॥

नैन सलौने, अधर मधु, शापित कह कम कौन।
मीठा भावे लौन पर, अरु मीठे पर लौन॥॥

नैन मीन, कटि सिंहनी, कर पंकज अनुहारि।
कह 'शापित' क्यों नहीं चढे़, देखत ही शतमार॥॥

विषयी, कपटी, लालची, इनसे प्रेम न होय।
प्रेम करे कोई शूर ही, जीवन-दीप संजोय॥॥

सीधे को लतियाय जग, टेढे़ से कतराय।
वक्र चन्द्रमा को कभी, राहू गिरसै नाय॥॥

न्याय, नीति, अनुचित-उचित, सब दौलत के दास।
समरथ को कुछ दोष नहिं, कह गए तुलसीदास॥॥

धनी करे अपकर्म भी, पिफर भी धर्म कहाय।
कालिदास की उक्ति सच, सब गुण कंचन माय॥॥

कृषक और मजदूर का, शोषण सबहि दिखाय।
मूल चेतना के सृजक, पर नहिं दृष्टि जाय॥॥

अवगुन तो प्रकटै सदा, निजगुन लेय छुपाय।
आत्म विवेचन जो करे, सो मानव तरि जाय॥॥

खुर्दबीन कर में लिये, ढूँढें पर के दोष।
निज तन-मन मल से भरा, ताको नैंक न होश॥॥

गन्ने पर नहि पफल लगे, नहि चन्दन पर पफूल।
लक्ष्मी-वाहन दास को, मिले न शारद भूल॥॥

चमचों का नहि धर्म है, नहि चमचों की जात।
तलुए चाटें जीभ से, देखें भरी परात॥॥

दिवस, मास और साल सब, गए देखते बीत।
पग-पग पर जग में मिले, ठग ही बनकर मीत॥॥

नीच संग ते लगत है, बडे़-बडे़ कू दोष।
सागर रावन संग ते, बंध्यो राम के रोष॥॥

यथार्थ और आदर्श हैं, देश-काल सापेक्ष।
वर्तमान की तुला पर, इनहिं परख ना देख॥॥

हृदय और मस्तिष्क में, जब तब समता नाँहि।
कला और साहित्य रस, रेती माँहि विलाँहि॥॥

चाटुकारिता से मिले, पुरस्कार सम्मान।
स्वाभिमान औ साधना, की न आज पहिचान॥॥

स्वामिभक्त बन श्वानवत, दीजै पूँछ हिलाय।
पुरस्कार सम्मान सब, घर बैठे मिलि जाय॥॥

स्वामिभक्ति का मित्रवर, दौरा यदि पड़ जाय।
व्यक्ति, जाति, नेतृत्व तजि, सीमा हित बतियाय॥॥

यौवन के उन्माद में, भूल रहे पितु-मात।
सन्ध्या सम ठहरे नहीं, दोपहरी अरु प्रात॥॥

शिशुता माँ की गोद में, बचपन बापू साथ।
यौवन में पत्नी मिले, भूले पिछली बात॥॥

श्रद्धा भगती मनुजता, घर से दीन निकार।
प्रेम-भावना, धर्म सब, पैसा का व्यौपार॥॥

विपद-घड़ी में कौन जन, थामे किस का हाथ।
छाया तक देती नहीं, अन्धकार में साथ॥॥

विज्ञापन के सहारे, मिट्टी स्वर्ण कहाय।
मोती विज्ञापन बिना, कौड़ी मोल बिकाय॥॥

सहज सरल सतभाव के, जन मूरख कहलाँय।
कपटी, स्वार्थी, धूर्त सब, बुद्धिमान बन जाँय॥॥

सुख में सब अपने बने, दुख में बने ना कोय।
दुख में हाथ बटाय जो, समझो अपना सोय॥॥

सुख में संबंधी बने, दुख में जावे भूल।
ऐसे जन को त्यागिये, ज्यों मारग को शूल॥॥

दहेज विरोधी मच रहा, चारों दिसि ही शोर।
बिन सामाजिक चेतना, घटे न इसका जोर॥॥

भाग्य बड़ा संसार में, मान चहे मत मान।
मूरख पूजा जाय जग, पंडित कर अपमान॥॥

सत्य बोल भूखे मरो, पूछे यहाँ न कोय।
झूठे धेखेबाज की, नित नई सेवा होय॥॥

किसी द्वार पर जाय कर, माँगि लेहु दो टूक।
दो टुकड़ों की जगह अब, मिलि है ठोकर बूट॥॥

दुनिया भूखी अर्थ की, करे अर्थ से प्रीत।
बिना अर्थ पूछे न जग, स्वामी सेवक मीत॥॥

पाप-पुण्य की कोथरी, यों काँधे लटकाय।
दीखें अपने पुण्य सब, पर के पाप लखाँय॥॥

बीज करेला बोय जो, करत कदलि की आस।
विषय वासना भोगते, मिटत न अन्तर-प्यास॥॥

कोऊ न काऊ को सगो, सब स्वारथ आधार।
बडे़ लाभ के हित करें, लोग यहाँ उपकार॥॥

काम, क्रोध्, मद, लोभ अरु, ममता, मत्सर त्याग।
इन्द्रिन जो निज वश करे, घर रह सुख वैराग्य॥॥

बन बस यदि मन में रहें, काम क्रोध् मद लोभ।
व्यर्थ त्याग वैराग्य सब, व्यर्थ जगत्‌ पर छोभ॥॥

जैसा खाए अन्न जन, वैसा बनता मन्न।
इन्द्रिय मन आधीन सब, करतीं पाप विभिन्न॥॥

माया अगनि समान है, इस बिन सरे ना काम।
पर विवेक-चिमटे बिना, होय नहीं कल्याण॥॥

अनुभव की अभिव्यक्ति जब, अन्तर में धुँधियात।
नरक-कल्पना जगत्‌ में जीव तभी लखियात॥॥

काल पडे़ ही होत है, दाता की पहिचान।
युद्ध क्षेत्र ही वीर की, सत्य कसौटी जान॥॥

भीर पड़े पर मित्र अरु, निर्धनता में नार।
विपद काल में वंश का, मिलता असली सार॥॥

मनुज परीक्षा होत है, त्याग शील, गुण, कर्म।
कट, घिस, तप, पिट, जिमि नहीं, कंचन त्यागे धर्म॥॥

प्रतिहिंसा देखे नहीं, जाति कर्म गुण दोष।
घायल साँपिन सम डसे, अगनित जन निर्दोष॥॥

असमय प्रियजन का कहीं, छूट जाय जो साथ।
सुख दुख में ढल जात है, दिवस बनत है रात॥॥

'पर' में 'स्व' अनुभव किये, प्रतिपल बढ़े अनन्द।
'स्व' में 'पर' अनुभव किये, प्रतिपल बढ़ते द्वन्द्व॥॥

'परता' में 'निजता' लखे, जीव होय निर्द्वन्द्व।
'निजता' में, परता लखे, कटें न जग के बन्ध॥॥

विज्ञ मनीषी मनुज की, कहते श्रेणी चार।
उत्तम, मध्यम, नीच अरु, इक ब्रह्मज्ञ विचार॥॥

जीवत के संबंधि सब, मरे न पूछे कोय।
रूप शक्ति और ज्ञान-बल, दो कोड़ी कौ होय॥॥

साँच सबै प्यारो लगे, यदि 'पर' बारे होय।
पर 'निज' के संबंध में, सत्य सहन नहि होय॥॥

बात कहन और सुनन को, चस्का जिहि लगि जाय।
खुद तो डूबे साथ ही, दूजहि देत डुबाय॥॥

गाँठ हृदय की खुलत है, दोऊ जनन के बीच।
अनचाहो, तीजो मिले, मिले दूध ज्यों कीच॥॥

काम, क्रोध अरु लोभ हैं, तीन महान विकार।
काम, क्रोध, सीमा निहित, लोभ असीम अपार॥॥

वर्तमान है काम सुख, क्रोध भूत आधीन।
भावी चिन्ता लोभ की, जीव नचावहि तीन॥॥

मध्य रात कूकर अगर, मुख ऊपर करि रोय।
निश्चय जानो निकट ही अनहोनी कछु होय॥॥

सदा न पफूले केतकी, सदा न रहे बहार।
सदा न बादल बरसते, सदा न मिले दुलार॥॥

स्वास्थ्य सम्बन्धी

भाद्र मास और क्वार में, खुले माँहि जो सोय।
सूर्योदय पीछे जगे, निश्चित रोगी होय॥॥

संग कलेवा छाछ ले, भोजन में घी खाय।
गरम दूध ले रात में, पत्नी अति सुख पाय॥॥

ताम्रपात्र में जल भरे, सिरहाने रख नित्त।
प्रातः उठ पी लीजिये, स्वस्थ देह और चित्त॥॥

हर्र बहेड़ा, आँवला, घी शक्कर के संग।
रोग पास आवे नहीं, बल में होय मतंग॥॥

हर्र बहेड़ा, आँवला, कूट-छान सम भाग।
दो खुराक जो लेय नित, वैद्य डाक्टर त्याग॥॥

गरमी बढे़ मसान में, रुक-रुक आवे मूत्र।
शीतल जल से दो वटी, चन्द्रप्रभा लो सूत्र॥॥

लघुशंका के साथ यदि, वायु विसरजित होय।
तुरत वैद्य ढिंग जाइये, देर किये दुख होय॥॥

भारीपन रहे पेट में, शौच न खुलकर आय।
भूसी ईसबगोल की, दूध संग ल्यो खाय॥॥

भोजन करके तुरत ही, लघुशंका को जाय।
दाँत भींच शंका करे, शुगर पास नहि आय॥॥

घृत अचार पापड़ दही, खाओ खिचड़ी संग।
स्वास्थ्य स्वाद दोनों सुखद, चित में रहे उमंग॥॥

भोजन उतना कीजिए, जो सहजहि पचि जाय।
अति भोजन ते होत है, उदर शूल या बाय॥॥

क्वार करेला, चैत गुड़, कढ़ी न सावन खाय।
भादों मूली त्यागिये, वैद्य पास नहि आय॥॥

सावन में घोड़ी जने, अरु भादों में गाय।
भैंस जने जो माघ में, तो कुनवा कूँ खाय॥॥

परिवार सम्बन्धी

इस दुनिया की रीत है, देखो नैन उघार।
मात-पिता अरु मित्र क्या! सब मतलब का प्यार॥॥

पत्नी भी खुश जब तलक, लाय हाथ धन देहु।
जब धन हाथ न धर सको, अलग बसाओ गेहु॥॥

पैसा ही माँ-बाप है, पैसा ही रिपु-मीत।
पैसा ही पत्नी-पति, इस युग की यह रीत॥॥

सास-बहू का आँकड़ा, है छत्तीस समान।
जिस घर में त्रेसठ बने, पुण्य पराक्रम मान॥॥

मिथ्या जग में झूठ सब, सुत दारा पितु-मात।
जैसे कड़वे नीम की, कड़वाहट प्रति पात॥॥

स्वारथ की डोरी बँधा, यह सारा संसार।
मात-पिता, सुत-भामिनी, कहें इसी को प्यार॥॥

मिथुन सिंह की राशि के, यदि कन्या वर होय।
प्रेम-भाव दिन-दिन बढ़े, बिरले ही दुख होय॥॥

मात-पिता तब तक भले, जब तक मिले न नार।
चन्द्रमुखी के दरस से, बने शत्रु परिवार॥॥

माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, सुत, घर-द्वार।
माया के संबंध सब, रहने हैं दिन चार॥॥

मूरख सुत, क्रोधी प्रिया, अरु कुगाँव का वास।
यदि 'शापित' तीनों मिलें, समझो नरक निवास॥॥

विधवा पुत्री, मूर्ख सुत, परनारी का नेह।
बिना आग के जरत है, इन तीनन से देह॥॥

निज बेटी बेटी लगे, बहू न बेटी होय।
ऐसे घर में चैन ते, कन्या सके न सोय॥॥

ऐसे घर में भूलेहूँ, कन्या देऊ न कोय।
मात-पिता हों स्वार्थी, बहिन कर्कशा होय॥॥

पति-पत्नी के वास्ते, कर न सकै जो काम।
प्रेयसि हित सब कुछ करे, भूल साम औ दाम॥॥

बालक को विद्या न दें, वैरी ते पितु मात।
हंस मध्य हो उपेक्षित, ज्यों बगुले की जात॥॥

रहना चाहे सासरे, गावे नैहर गीत।
ऐसी दुल्हन किस तरह, पावे पति की प्रीत॥॥

अति

शापित अति मत कीजिये, अति कीजे नहि चैन।
ना अति चुप रहना भलो, ना अति बोले चैन॥॥

जीवन में 'अति' अति बुरी, याते बुरो न और।
अतिवादी कूँ जगत में, मिले न गज भर ठौर॥॥

नहि अति सुन्दरता भली, नहि अति भलो कुरूप।
अतिशय भली न चाँदनी, अतिशय भली न धूप॥॥

अति परिचय में घटत है, प्रीत, प्रेम, सम्मान।
मर्यादित अन्तर रखें, होय नहीं व्यवधान॥॥

अति कीजै हरि भजन में, अति कीजै उपकार।
मनन अध्ययन अति किये, होवे बेड़ा पार॥॥

धर्म

भला-बुरा जग में न कुछ, नहीं नर्क नहि स्वर्ग।
परम धर्म इस जगत्‌ में, पालन निज कर्तव्य॥॥

दृढ़ निश्चय औ लगन से, बनते बिगड़े काम।
देह धर्म निज कर्म है, पफल अधीन प्रभु राम॥॥

मन्दिर, मस्जिद, चर्च ही, नहिं होते हैं धर्म।
जीव-दया, परहित करो, यही धर्म का मर्म॥॥

पर हित सम नहि धर्म जिमि, त्यों दयालु श्रीराम।
आमिष भोगी गीध तक, भेज दियो निज धम॥॥

पर पीड़ा सम जगत्‌ में, पाप न दूजा और।
मार पडे़ यमराज की, मिले नरक में ठौर॥॥

मात-पिता, गुरु-देवता, मुनि जन वेद-पुरान।
मैंढक, चिमगादड़ बने, निन्दक शास्त्र प्रमान॥॥

दस लक्षण जो धर्म के, मनु ने दिए बताय।
विश्व प्रमुख हर धर्म में, सहज भाव दिख जाय॥॥

धर्म न पूजा पाठ में, नहीं ध्यान निष्कर्म।
देश-काल सामर्थ्य सम, जीव कर्म ही धर्म ॥॥

शिक्षा, ज्ञान, ग्रन्थ

शिक्षा द्वारा मनुज के, ज्ञान चक्षु खुल जाँय।
बिनु संयम, अध्ययन बिन, आलसि पावे नाँय॥॥

बुद्धि न बाड़ी में उगै, बुद्धि न बिके बजार।
पठन, मनन, चिन्तन बिना, खुलें न या के द्वार॥॥

शिक्षा, बुद्धि विवेक अब, बिकें न काऊ भाव।
ज्यों कुँजडे़ की पैंठ में, नहि मोती की आब॥॥

चार वेद, वेदांग छः, मीमांसारु पुरान।
र्ध्मशास्त्र और न्याय को, चौदह विद्या जान॥॥

ज्योतिष शिक्षा, व्याकरण, छन्द शास्त्र का ज्ञान।
निरुक्त, कल्प वेदांग ये, भेद कहें विद्वान॥॥

ग्रन्थ-ज्ञान, पर-हस्त धन, सरे न कोई काम।
मनन बुद्धि निजहस्त ध्न, असमय आवे काम॥॥

ग्रन्थ ज्ञान नहि ज्ञान है, ज्यों निज-धन पर-हाथ।
ज्ञान आचरण में रमें, जिमि धन अपने हाथ॥॥

विद्या पढ़ना सपफल यदि, समझ पडे़ यह बात।
रहे पुराना नित नया, नव पुरान हो जात॥॥

दुर्जन-सज्जन

भूपति मन कंजूस धन, दुर्जन मन की चाह।
नारि चरित, नर भाग्य गति, विधि हू जानि न पाय॥॥

दुर्गुण को न छुपाइए, दुर्गुण बुरी बलाय।
एक बार आश्रय मिले, प्रति-पल अति गहराय॥॥

मन, वाणी अरु कर्म में, सज्जन एक समान।
जिन में यह समता नहीं, तिन को दुर्जन जान॥॥

दुख-सुख अरु निगुनी-गुनी, रूप मूर्ख विद्वान।
कीर्ण-कुसुम, रजनी-दिवस, नित्य पराश्रित जान॥॥

निज गुन बिन, पर-नकल से, मानव बड़ा न होय।
खाय कुलंजन मुलहटी, काग न पिक-स्वर होय॥॥

मलय मूल अहि बसत हैं, शाखा पर कवि वृन्द।
पफुनगी पर षट्पद बसत, इमि सज्जन खल पफन्द॥॥

नर तन पा भी नहि किया, ललित कला से प्यार।
सींग-पूँछ बिन समझिये, नर-पशु भू पर भार॥॥

धर्म न शील न कला रुचि, नहि आचरण उदार।
ऐसे जन इन भूमि पर, हिंस्र जन्तु अवतार॥॥

ये नर-पशु यदि जगत्‌ में, खाने लगते घास।
तो धरती पर हो नहीं, पाता पशु आवास॥॥

बाध भय से अधम जन, करें न कोई काम।
मध्य रुकें बाध मिले, उत्तम गति अविराम॥॥

प्यास लगे खोदे कुआँ, मूरख समझो ताहि।
समय रहत चेते नहीं, हाथ मले पछिताहि॥॥

मर्यादा पालन करें, जिन में बुद्धि विवेक।
पिंजर में चकवा युगल, भूले होंय न एक॥॥

निज सुख-सुविध त्याग जो, जनहित करे अघाय।
परजा रंजन में रमें, सो सत राज कहाय॥॥

स्वयं खाय नहि खान दे, कहिए मक्खीचूस।
पर हित भूले ना करे, खुद खाए कंजूस॥॥

निज सुख परहित में लखे, जानो तेहि उदार।
पर-सुख हित जो दुख सहे, ते ज्ञानी संसार॥॥

निज-गुन पर-अवगुन लखैं, पफूलै नहीं समाय।
निज-अवगुन परगुन-लखे, ज्ञानी वही कहाय॥॥

पर-नारी निज-मात सम, पर-धन धूरि समान।
निज वत देखे जीव सब, सो ज्ञानी विद्वान॥॥

पर सम्पत्ति देखत जरें, पर दुख लखि हरषाय।
देखत ऐसे मनुज को, मानवता सकुचाय॥॥

नीच न छोड़े नीचता, लाख संत मिलि जाँय।
निशिदिन बसत कपूर संग, हींग गंध नहि जाय॥॥

बिन कारण झगड़त पिफरे, दया नहि मन माँहि।
जो पर-धन पर-दार रत, समझो दुर्जन ताहि॥॥

समता मन, वच, कर्म में, सज्जन की पहचान।
इनमें समता जहँ नहीं, दुर्जन ता कूँ मान॥॥

निज दुख में तो होत हैं, गीले सबके नैन।
पर सज्जन मन रहत है, पर दुख ते बेचैन॥॥

निज सुख दुख बिसराय के, पर सुख-दुख में लीन।
रात-दिवस जागत रहे, देवी सम परवीन॥॥

मनसा वाचा कर्मणा, समता जाकी नाँहि।
विद्वत, विज्ञ समाज में, सज्जन ते न कहाँहि॥॥

मिलत जाहि दुख होत है, बिछुरत निकसत प्रान।
दुर्जन, सज्जन की समझ, 'शापित' यह पहिचान॥॥

थोड़ा पढ़ सोचे अधिक, बोले कम विद्वान।
'शापित' ऐसे सुजन का, होय सतत सम्मान॥॥

भूत सोच दुख होत है, भय का जनक भविष्य।
वर्तमान चिन्तन करें, सो ज्ञानी गुरु-शिष्य॥॥

उत्तम, मध्यम, अधम जन, यह चरित्र पहिचान।
जल सिकता पाषाण की, समझो लीक समान॥॥

संतशरण में पहुँच भी, चाहे विषयानन्द।
वह मूरख जीवित मृतक, चहे न भजनानन्द॥॥

संत पास संपति नहीं, सन्मति देत अमूल।
प्रभू मिलन की राह के, दूर होंय सब शूल॥॥

संत कृपा बिन शुद्ध-मन, होता नहीं अजान।
बिना शुद्ध मन के अधम, दर्शन दुर्लभ जान॥॥

साबुन लागे ना छुटे, खारे पानी मैल।
खल संगति त्यागे बिना, मिले न निर्मल गैल॥॥

शापित सज्जन संग ते, यश सहजहि मिल जाय।
मैंहदी पीसत हाथ जिमि अनचाहे रचि जाय॥॥

प्रेम

प्रीत मछरिया ने करी, जल बिन त्यागे प्राण।
जल निर्मोही तजि गया, जिमि नाही पहिचान॥॥

अरे 'शलभ' इस दीप पर, तू काहे मँडरात।
पंख जलेंगे बावरे, कुछ नहि लगि है हाथ॥॥

पंख जरैं, वपु हू जरे, इस का भय मोहि नाय।
एक बार बस प्राण प्रिय, देखि लेय मो माहि॥॥

एक न मानी शलभ ने, पहुँचा दीपक पास।
एक लपट में भुन गया, तड़प रही है लाश॥॥

प्रीत-पीर सब से बुरी, या सम पीर न कोय।
पर समझे इसको वही, जिसने भुगती होय॥॥

प्रेम तन्तु अति ही मृदुल, तोड़ो मत चटकाय।
एक बार चटका अगर, पिफर यह जुड़ता नाय॥॥

प्रीत करी प्रेमी बने, अब क्यों होत अधीर।
प्रीत-बेल पनपत सदा, दो नैनन के नीर॥॥

'शापित' इस संसार में, चार दिना की प्रीत।
मतलब तक साथी सभी, पिफर को कैसा मीत॥॥

निज मन को समझाय कर, धरो धैर्य किशोर।
प्रेम उदधि अति गहन है, जिस का ओर न छोर॥॥

जब विधि ने ही नहि लिखा, प्रेम-प्रीत-संयोग।
व्यर्थ नैन क्यों बिलखते, पूर्व जनम कौ भोग॥॥

प्रेम-पंथ व्यापक विपुल, पर विचित्र इक बात।
एक समय में खिलत है, यहाँ एक जल जात॥॥

प्रेम न हाथ पसारतो, नहिं प्रकटे अधिकार।
मूक साधना में करे, वह तो योग विचार॥॥

प्रेम न तोला जाय जग, ना ही नापा जाय।
भाव-कसौटी पर कसै, प्रेम-हेम चमकाय॥॥

प्रेम-पंथ पर ध्रत पग, सब संशय मिट जाय।
सन्तोषी के सामने, जैसे द्रव्य मसाय॥॥

प्रेम, नेम और धर्म है, प्रेम रतन धन खान।
प्रेम-पंथ पर चल मिले, मानव में भगवान॥॥

तन-बगिया में प्रेम के, बीज देउ बिखराय।
रोम-रोम में सहज ही, परमानन्द लखाय॥॥

कबिरा, तुलसी, सूर के, अद्भुत प्रेम-प्रसंग।
सहज-रूप में प्रभु मिले, प्रेरक बनो अनंग॥॥

भक्ति, ज्ञान, वैराग्य का, मूल मंत्र है प्रेम।
विविध रूप धारण करे, ज्यों नारी हित हेम॥॥

कपट-खटाई परत हीं, प्रेम-दूध पफटि जाय।
विषयी लम्पट स्वार्थी, प्रिय-नवनीत न पाय॥॥

क्षेम, कुशल, कल्याण सब, शब्द प्रेम आधीन।
प्रेम पंथ पर चलत हैं, चतुर, सुजन परवीन॥॥

प्रेम न बंधन जाति का, प्रेम न वय आधीन।
देह निहारे वासना, प्रेम आत्मा लीन॥॥

कमल, कुमुद को देत कछु, सूरज-चन्दा नाय।
देखत ही खिल जात हैं, सहज-प्रेम सत भाय॥॥

प्रीत खोजने में दिया, जीवन सकल बिताय।
व्यवसायी या जगत्‌ में, प्रेम न कहीं लखाय॥॥

प्रेम पंथ झाड़ी उगे, भूल न उगे गुलाब।
मन-मधुकर समझे नहीं, अगनित दिये सुझाव॥॥

प्रेम सूत्र अति सूक्ष्म है, सोच लेहु मन माँहि।
तनिक उपेक्षा होत ही, टूक-टूक ह्वै जाहि॥॥

प्रेम भावना पर नहीं, मानव का अधिकार।
रोके से रुकती नहीं, ज्यों नदिया की धर॥॥

प्रेम पथिक मुख ते नहीं, कहें प्रेम की बात।
बिना कहे अन्तर जले, दृग जल जाहि बुझात॥॥

प्रेम पिपासा जीव के, जीवन की पहिचान।
बिना प्रेम के कर्म सब, जैसे जगे मसान॥॥

सत्य प्रेम कूँ आजकल, कोउ न आदर देय।
बातूनी मक्खन लगा, रूप रंग रस लेय॥॥

पात पात उस चमन का, जाने मन की बात।
जानबूझ अनजान बन, पर माली मुसकात॥॥

अनजाने बन जात हैं, इक दूजै के मीत।
ना जाने किस जन्म की, मिलती भटकी प्रीत॥॥

प्रेम प्रेम सब रट रहे, बालक वृद्ध जवान।
रूप-कमल के मधुप ये, नहीं प्रेम पहचान॥॥

स्वारथ की डोरी बँधे, लोग जतावें प्रेम।
मात पिता सुत भामिनी, यही जगत्‌ का नेम॥॥

मन

मन की गति समझ न परे, कीने लाख विचार।
बाल-वृद्ध, नारी पुरुष, सब इससे लाचार॥॥

राव-रंक, निर्धन धनी, सब मन के आधीन।
मन के हाथों बन गए, मूरख बडे़ प्रवीन॥॥

मन मन को ढूँढत पिफरे, पर मन मिलता नाय।
आँख मिले, तन भी मिलें, पर मन मन न समाय॥॥

मन माने की बात है, को अपना को गैर।
या मन ते ही होत है, प्रेम, भक्ति औ वैर॥॥

मन चपला सम चपल है, ज्यों नदिया की धर।
मूढ़-विज्ञ, निर्धनी-धनी, इससे सब लाचार॥॥

मन से जन निज पर बने, मन ही ते सुख चैन।
जब तक मन वश में नहीं, जी तड़पत दिन रैन॥॥

मन ममता और मोह से, कटे न जब तक पफन्द।
विषय वासना त्याग कर, शरण गहे रघुनन्द॥॥

मन के पहिचाने बिना, सरै न कोई काम।
मन को वश कीने बिना, सपनेहु मिलें न राम॥॥

मन की गति अति ही प्रबल, जाने बिरला कोय।
जो मन की माने सदा, सो सुख नींद न सोय॥॥

मन की सब मन में रही, काल गहे कर केश।
शापित इस संसार में, चार दिना की रेस॥॥

खावत, पीवत, सोवते, सबरी पूरी आस।
कौन कमी पिफर रे मना, जो नित रहत उदास॥॥

मन पगले भूले मती, दुनिया विष की गाँठ।
साँचे तो बस राम हैं, पर भजने में आँट॥॥

साठ बरस तक भी नहीं, मिट पाई यह प्यास।
मन-मधुकर भटकत रहौ, नारी अंग-सुबास॥॥

गुरु की अनुकम्पा भई, बुद्धि बनी प्रवीण।
अस्थिर, चंचलता मिटी, मन निर्मल कर दीन॥॥

अपत कटीली डार पर, अब नहि खिले गुलाब।
मन-मधुकर पिफर भी रहे, बिंध्यो प्रेम के भाव॥॥

इत-उत चारों ओर ही, सजा रूप बाजार।
अँखियन कौ बिगरे न कछु, मन कूँ मारे मार॥॥

सहत-सहत पीड़ा हुआ, 'शापित' मन अभ्यस्त।
अब नहि पीड़ा व्यापती, हुए हौसले पस्त॥॥

ऐसी कुछ इच्छा नहीं, जिससे होय अधर्म।
केवल भाव-विचार हित, अधर करें कुछ कर्म॥॥

'शापित' मन वैरी भया, अब अपने वश नाहि।
निसि-बासर तड़पत रहे, तव दर्शन की चाह॥॥

शत्रु-मित्र मन ते बनें, मन ते सुख-दुख होय।
मन के वश सब जगत्‌ है, मन विरले वश होय॥॥

मन-दर्पण में पीव की, मूरत यों बसि जाय।
ज्यों-ज्यों प्रिय दूरी बढै़, त्यों-त्यों अति गहराय॥॥

मन मारे बिनु साधना, पथ पर बढें न पैर।
जीव, जगत्‌ और ब्रह्म में, मन ही डारे वैर॥॥

डाल-डाल झूलत पिफरत, मन-कपि अति इतराय।
लालच इक मुटटी चना, को दर-दर नचवाय॥॥

तिय, सुत, धन और मान हित, मनुआ तड़पत नित्य।
तजे न विषय विकार मन, प्रभु में लगे न चित्त॥॥

तन बूढ़ा ह्वै जात है, मन नाहीं बुढ़ियात।
गजगामिनि मृगलोचनी, देख देख दुखियात॥॥

तन कुदरत आधीन है, पर मन वश में नाहि।
यौन-बगिया कुसुम लखि, मन-मधुकर ललचाहि॥॥

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
मन से होती शत्रुता, मन से होती प्रीत॥॥

रूप अरूप कुरूप सब, मन माने की बात।
जेहि संग लगि जाय मन, सोई ताहि सुहात॥॥

अनचाहे ही जाय जब, मन में कोय समाय।
कीने लाख प्रयास हूँ, पिफर वह निकसत नाय॥॥

वाणी कह पाती नहीं, निकसत शब्द लजात।
निज सीने पर हाथ रख, जानो मन की बात॥॥

कागज लिखते मन डरे, बोलत मन शरमात।
तुम तो परम प्रवीन हो, समझो मन की बात॥॥

घर छोटा पर मन बड़ा, यह उन्नति का राज।
अवनति की राह पर, लघु मन है ले जात॥॥

नारी

बड़े-बड़े पोथे पढ़े, और पढ़ लीने वेद।
समझ न इस पर भी सके, नारी मन का भेद॥॥

नारी चतुर सुजान अति, सकल कला परवीन।
मृदु वाणी से सींचकर, ढूँढ पल्ल्वित कीन॥॥

सम्बोधन के शब्द से, खींची सीमा रेख।
मन-चकोर सम कर दिया, जिये जु राशि मुख देख॥॥

भाव-भंगिमा मधुरिमा, औ रतनारे नैन।
रोम-रोम झंकृत करै, काम अनकहे बैन॥॥

मेरे तेरे बीच में, अन्तर इक दो नाय।
बुद्धि लाख समझा रही, पर मन मानत नाय॥॥

लेना-देना कुछ नहीं, पिफर भी झूठी आस।
पास होत दूरी रहे, दूरी में अति पास॥॥

कभी-कभी जब करत हैं, सहज प्रेम-व्यवहार।
मधुर रागिनी छेड़ते, मन-वीणा के तार॥॥

शायद पिछले जनम की, रही लालसा शेष।
संध्या बेला में कहाँ? आ पहुँचा तव देश॥॥

सौम्य, सुशील, सुलोचनी, साहस कर्म प्रवीन।
रूप-सुध की धर में, मन भटकत ज्यों मीन॥॥

अबला जान न कीजिए, नारी सँग व्यवहार।
इक पल में धरण करे, चण्डी माँ अवतार॥॥

भारत-नारी की रही, सदा अलग पहिचान।
सतीत्व रक्षा के लिये, अगनित त्यागे प्रान॥॥

नर-नारी के बीच में, नाही कोई भेद।
नारी-शक्ति स्वरूप है, गाएँ ॠषि मुनि वेद॥॥

नर-नारी सहयोग से, जगत्‌ होत गतिमान।
जीवन-गाड़ी के समझ, दोऊ चक्र समान॥॥

गोरे तन साड़ी लसै, सहज बैंगनी रंग।
प्रथम दरश गजगामिनी, कीन तपस्या भंग॥॥

गजगामिनी, मृगलोचनी, अधरा भरे पराग।
पिक बयनी तव दरस से, जागे सोये राग॥॥

होय सुजाति सुलक्षणी और गुनन की खान।
पर नर में अनुरक्ति यदि, समझो जीवन हानि॥॥

होय कुजाति कुलक्षणी, सकल गुनन ते हीन।
पति सेवा अनुरक्ति यदि, कृपा प्रभु की चीन्ह॥॥

नारी शक्ति-स्वरूपिणी, नारी सृष्टि अधर।
नारी बिन सम्भव नहीं, निराकार साकार॥॥

धीर, वीर, दृढ़ साहसी, त्याग, रूप आगार।
खोजे भूमण्डल कहूँ, मिले न भारत नार॥॥

नैन बड़े, गोरी त्वचा, देखत मन ललचाय।
मधुर मंद मुस्कान लखि, शेर श्वान बन जाय॥॥

वदन चंद नैना कमल, लंक वंक अति छीन।
नासाधर शुक, बिम्ब ज्यों, परसत होय मलीन॥॥

नैन सलौने, अधर मधु, नासा-श्रुत कमनीय।
चाल मस्त मृगराज सम, केहि चित चोर न तीय॥॥

कनक बदन नैना कमल, द्विज दुति दामिनी रूप।
वेधत निशि दिन काम-सर, युव जन रंजन रूप॥॥

ज्ञान, ध्यान, पूजन, भजन, नीति, तर्क, विचार।
नैन कौर वश में करे, पल में रूपसि नार॥॥

पुरुष प्रधान समाज ने, नारि उपेक्षा कीन।
साहस ज्ञान विवेक के, अवसर लीने छीन॥॥

भूल गए हम तथ्य यह, जन्म नारि आधीन।
धरती भाषा बुद्धि बिन, सब वैभव रसहीन॥॥

नारी के सम्बन्ध में, कैसी कुत्सित दृष्टि।
शैतां ने नारी रची, नर ईश्वर की सृष्टि॥॥

कभी सौम्य ममतामयी, कभी भरी अनुराग।
कभी पोडषी कामिनी, छेडे़ राग विहाग॥॥

सर्व कला सम्पन्न जो, नारी रत्न प्रवीन।
नेह नैन नारी विषय, ताहि समर्पित कीन॥॥

सुन्दर नारी से नहीं, भली जान-पहिचान।
मित्र भाव तड़पाय मन, शत्रु भाव ले प्रान॥॥

सुन्दर पत्नी पाय कर, मूरख मत इतराय।
अवसर पावत देयगी, मित्रहि शत्रु बनाय॥॥

नारी तन है अग्नि सम, नर घृत-कुम्भ समान।
निकट रहे मन नहि डिगे, याहि असम्भव जान॥॥

नारी स्नेह स्वरूप है, पुरुष विवेक स्वरूप।
दोनों सम पथ पर चलें, प्रगटे धर्म स्वरूप॥॥

पुरुष विवेक स्वरूप है, नारी स्नेह स्वरूप।
सहज संतुलित भाव से, प्राप्त होय निज रूप॥॥

नयन

नैन बैन की माधुरी, समझें चतुर सुजान।
शत्रु-मित्र या जगत्‌ में, कोई न इन सम आन॥॥

नैनन मग नैना मरे, अन्तर में धसि जाँहि।
ज्यों ज्यों इन्हें निकालिए, त्यों-त्यों भीतर जाँहि॥॥

नैना नैनन सों लगें, मन कौ छीनें चैन।
शिथिल गात, बुद्धि शिथिल, कल न परै दिन रैन॥॥

तोप तीर तलवार ते, जो जन डरपत नाँहि।
नैन बान के सामने, आवत हूँ घबराँहि॥॥

अँखियन चढ़ि मन पै चढ़े, पिफर नहिं भावे और।
आँखिन ते जो गिर गए, बिनकू कहूँ न ठौर॥॥

सजल नैन तव मद भरे, इस पल बिसरत नाँहि।
नेह सलिल ते हे सखी, सूखे तरु हिरयाँहि॥॥

दीरघ-मृग, कोमल-कमल, रतनारे तव नैन।
मीन चपलता हरि लई, कैसे लगे न मैन॥॥

प्रिय के बैठन हित दए, सुभग-सेज दो नैन।
पलक-कपाट लगाइ के, लूटो सुख दिन रैन॥॥

नैन मार के कारने, राम गए बनवास।
सूपनखा नकटी भई, रावण पायो नास॥॥

दुर्योध्न कू चुभ गए, द्रुपद सुता के बैन।
अन्धे के अन्धे भए, कह हँसि दीने नैन॥॥

अद्भुत गति नैनान की, का पे बरनी जाय।
आठ पहर बसरत रहें, तऊ न आग बुझाय॥॥

देखन में शीतल लगें, कोमल अरु सुकुमार।
तरुणी के नैनान ते, रवि हूँ मानी हार॥॥

सूरज तो ऊपर तपै, मनहि तपावें नैन।
स्नेह सलिल सीचें तरु, अन्य भाव उपजै न॥॥

सीधे नैनन ते बिंवधी, अन्तर मन की मीन।
तिरछे कर अब प्यार की, कसक न हे प्रिय छीन॥॥

निजता-परता, दीनता, द्वेष, शील, विश्वास।
लाख छुपाए न छुपें, नेना देते भाष॥॥

झर झर बदरी झर रही, गरज रहे घनश्याम।
जब ते तव नैना लखे, सोच रहे अन्जाम॥॥

शापित इन अँखियान की, देखी उलटी रीत।
प्रथम मिलन में होत हैं, इक दूजै के मीत॥॥

इन अँखियन सों क्या कहें, समझ नहीं कुछ आय।
आपस में ही लेत हैं, गुप-चुप कुछ बतराय॥॥

अँखियन का बिगड़े न कुछ, मन गरीब पफँस जाय।
नींद न आवे रात को, दिन में अन्न न भाय॥॥

शापित अँखियाँ बावरी, देखें शत्रु न मीत।
अनजाने कर लेत हैं, जीवन भर की प्रीत॥॥

नैनन के इस तीर से, मन-मृग बेधे जाँहि।
जीवत, मरत न छुटत जग, तड़पि-तड़पि रहि जाँहि॥॥

नैन भौंर को बुद्धि ने, समझाया बहु बार।
एक दिवस पफँस जायगा, अपत-कटीली डार॥॥

इन नैनन की दशा का, बरनन किया न जाय।
अनदेखे अकुलाँय अति, सम्मुख देखत नाय॥॥।

नहि जानत क्या सोच कर, ब्रह्म बनाए नैन।
वाणी से भी तेज अति, बिन वाणी के बैन॥॥

तीर तमंचा तोप अरु, हैं अनेक हथियार।
बिन गोली बारूद के, नैना डारत मार॥॥

सभी कहैं नैना खुले, जग का दर्शन होय।
मम-नैना दुश्मन हुए, खुलतहि कीन बिछोह॥॥

नैना दे प्रभुजी भला, किया कौन उपकार।
नैनन के संयोग से, जीवन बनता भार॥॥

सहस जनों के बीच में, एक मूर्ति की ओर।
अनायास खिंच जात हैं, क्यों ये नैन चकोर॥॥

मृत्यु

साँस तार कहँ टूटि है, यह नहिं जानत कोय।
काल खींच ले जाय तहँ, जहँ विधि लिक्खी होय॥॥

माता-पिता, भाई-बहन, सुत-दारा अरु मित्र।
इस संसार सराय में, यात्री-वत एकत्र॥॥

जाने वाले को यहाँ, सके न कोई रोक।
आने वाला आएगा, विरथा करो न शोक॥॥

पाँच तत्त्व का पूतला, है चेतन आधीन।
चार तत्त्व वह ले चला, देह धरा भई दीन॥॥

देह त्याग कर जीव जब, जाता है परलोक।
आँसू परिजन के निरख, पाता है अति शोक॥॥

शोक त्याग, हो शांत चित, मन में धरो धीर।
आँसू से जीवात्मा, पाती पथ में पीर॥॥

साँस चले तक ही रहें, इस जग के सम्बन्ध।
साँस रुके छूटें सभी, प्यारे भाई बन्ध॥॥

जीते जी सब ही करें, मुँह देखी सी बात।
आँख मुँदें करनी पफले, सत्य प्रकट हो जात॥॥

धन सम्पति की बात क्या, जाय न कौड़ी संग।
राम भजन, परहित करन, पुण्य लाभ सत्संग॥॥

जीवन भर संचय किया, करी न कौड़ी दान।
अन्त समय खाली चले, समझ सोच नादान॥॥

भक्ति रूप हल जोतिये, जीवन रूपी खेत।
राम नाम बिन छीजिहै, ज्यों मुट्ठी की रेत॥॥

खान, पान अरु भोग में, छत भर सुख मिल जाय।
राम शरण जाए बिना, शान्ति मिलेगी नाय॥॥

राम नाम बन्धन कटें, सुख-सम्पति मिल जाय।
राम नाम की गर्जना, सुन यमदूत पठाय॥॥

शूकर-कूकर योनि में, भटक रहे दिन रैन।
राम शरण जाए बिना, जीवहिं मिलै न चैन॥॥

संग न कोई आवता, नाहीं जाता साथ।
भजन, भक्ति कर मूढ़ मन, जाना खाली हाथ॥॥

बीता तो वश में न था, पर भावी तव हाथ।
माया ममता त्याग मन, भजो राम रघुनाथ॥॥

बिना भक्ति भव-सिन्धु की, पार न कोई पाव।
जन्म-जन्म भटकत पिफरे, ज्यों बिन माँझी नाव॥॥

भव-सागर माया भँवर, काम-वात विपरीत।
नाव पार नहिं लग सके, बिना राम-पद प्रीत॥॥

काम, क्रोध, मद, लोभ वश, कीने पाप हजार।
सच्चे मन से हरि सुमरि, होवे बेड़ा पार॥॥

खेल-कूद बचपन गयो, यौवन नारी संग।
मन अब भी वश में नहीं, शिथिल भए सब अंग॥॥

लोभ-भँवर में जीव पड़, भोगे कष्ट अपार।
राम-नाम-माँझी बिना, होय न बेड़ा पार॥॥

सुर दुर्लभ नर तन मिला, जो पिफर मिलना नाय।
परहित कर प्रभु नाम जप, जनम सपफल हो जाय॥॥

मनुज देह ही कर सके, पर सेवा उपकार।
शूकर-कूकर जीव जड़, का निज तक संसार॥॥

दीन जान छोटा समझ, मत कीजै अपकार।
समय सदा नहि एक-सा, रहता करो विचार॥॥

चार दिशा जो लोक में, जानो यम के द्वार।
साधु ज्ञानी भक्त जन, जाँहि न दक्षिण द्वार॥॥

कामी, कपटी, लालची, रत परधन परदार।
पापी जन के वासते, ही दक्षिण का द्वार॥॥

मृत्यु मात्र ही सत्य है, बाकी सभी असत्य।
मूरख ज्ञानी सभी जन, देख रहे हैं नित्य॥॥

जीवन लाया आ गए, चले मौत आदेश।
आना जाना वश नहीं, क्या घर क्या परदेश॥॥

नश्वरता

इस चमड़ी की तीन गति, विष्ठा, माटी, छार।
मूरख विरथा मत करो, इस देही से प्यार॥॥

निर्धनता संसार में, सब पापों का मूल।
निर्दोषी दोषी बने, चले विश्व प्रतिकूल॥॥

बिन धन इस संसार में, जीवन है निस्सार।
बिना लवण व्यंजन सभी, धरे रहें बेकार॥॥

चपला की सी झलक यह, जाने कब छुप जाय।
'शापित' नश्वर देह पर, मत इतना इतराय॥॥

धन-सम्पत्ति, यौवन-विभव, चार दिवस का खेल।
'शापित' इन में मत भटक, काट मौत की बेल॥॥

बिन धन के जीवन नहीं, धन बिन धनी न होय।
बिन प्रकाश तम ना नसै, जब लगि सूर्य न होय॥॥

लाली देखत दीप की, शलभ गया चित हार।
पर निष्ठुर इस दीप ने, किया पलक में छार॥॥

बेला, चम्पा, चमेली, क्या गुलाब कचनार।
पफूल बनी कलियाँ झुकीं, निज यौवन के भार॥॥

इन पफूलों की झलक में, भूले मती पतंग।
चार रोज की चमक यह, सदा नहीं आनन्द॥॥

अगले पल की सुध नहीं, शत वर्षी सामान।
बाज शीश मँडरा रहा, समझ बूझ नादान॥॥

लख चौरासी में भटक, पाई यह नर देह।
हाड माँस मल मूत्र की, थैली पर पिफर नेह॥॥

छन छन छीजत देह नर, पल पल यम नियराय।
मूरख मन चेते नहीं, अधिक अधिक उरझाय॥॥

आधुनिकता/पश्चिमीकरण

विश्वामित्र वशिष्ट की, भूल गये हम सीख।
काले गोरे बन गए, मैकाले की सीख॥॥

रुपया की कीमत गिरी, चीख उठा सब देश।
मानवता अवमूल्य की, नहिं चिन्ता लवलेश॥॥

सोना गया विदेश तो, सभी मचावत शोर।
पर विदेश घर-घर बसा, लखैं न उसकी ओर॥॥

सोना तो आ जाएगा, कुछ दिन की है बात।
पर विदेश की सभ्यता, जाती नहीं लखात॥॥

नर-नारी बालक-युवक, अज्ञ और विद्वान।
साँस-साँस में दे रहे, पश्चिम की पहिचान॥॥

गऊ माता विष्ठा भखे, श्वान मलाई खाँहि।
रूपवती वारांगना, सध्वा को लतियाँहि॥॥

सूकर, कूकर, अरु गध, मुरगी नसल सुधर।
मानव हित के नाम पर, लुभा रही सरकार॥॥

दिग्दर्शक अन्धे बने, रोगी करें निदान।
लाजवन्त दर-दर पिफरें, शठ निर्लज्ज महान॥॥

माता जी मम्मी बनीं, पिता बन गए डैड।
लंच, डिनर औ ड्रिंक्स बिन, लाइपफ वैरी सैड॥॥

कुत्ते बिस्कुट खा रहे, मरें मनुज बिन अन्न।
आई भली स्वतंत्रता, नेता जी को धन्य॥॥

देश-भक्ति के नाम पर, चहुँ दिसि माची लूट।
घर-घर में विकसित भई, गोरे बोई पफूट॥॥

अंगरेजों के राज में, निज धन गया विदेश।
पर स्वतन्त्र निज देश में, कितना धन है शेष॥॥

ध्वनि कर धुआँ बन गई तीस कोटि की रास।
नव कुबेर यों कर रहे, लक्ष्मी का उपहास॥॥

बिजली के लट्टू जलैं, दीपावलि के नाम।
दीप तेल सिर धुन रहे, ले नव युग को नाम॥॥

चाचा ताऊ व्यर्थ हैं, मामा-पूफपफा व्यर्थ।
सब सम्बन्धों के लिए, अंकल हुए समर्थ॥।

मानव से लेने लगी, प्रकृति अब प्रतिकार।
सावन में झर की जगह, चलती गरम बयार॥॥

सज्जनता का सब जगह, होता अब उपहास।
भाई-भाई का नहीं, करता अब विश्वास॥।

नून तेल आटा नमक, दिन-दिन मँहगे होत।
आधी जनता देश की, भूखी प्यासी सोत॥॥

युवा बहिन, रोगी पिता, पत्नी हो बेहाल।
गबन, घूस, चोरी नहीं, नाहीं बने दलाल॥॥

सत्य चरित ईमान की, तभी परीक्षा होय।
विषम घड़ी अवसर मिले, जब नहि धीरज खोय॥॥

भाई चारा, मनुजता, सच्चाई विश्वास।
शब्द कोश में जा बसे, तजि जीवन में आस॥॥

पफूले मक्का के नहीं, खाता सभ्य समाज।
पॉपकोर्न खाए मगर, निस्संकोच बिन लाज॥॥

'शापित' इस संसार में, दौलत का व्यौपार।
बिन धन मानव बिक रहे, हाँ कौड़ी के चार॥॥

कैसी हरियल तीज यह, चहुँ दिसि उड़ती धूल।
मानव वैज्ञानिक बना, प्रकृति ब्रह्म सब भूल॥।

चुवै पसीना गात ते, पल-पल सूखें होठ।
घायल सावन ने लई, ज्यों बैसाखी ओट॥॥

हिन्दुस्तानी बन गए, गोरेन की औलाद।
लंच, डिनर, रुचिकर लगे, नहीं रसोई स्वाद॥॥

जल वायु दूषित हुए जीवन हुआ अपंग।
नव औद्योगिक प्रगति से जीव जन्तु सब तंग॥।

ऑक्सीजन 'पर' हो गया, कार बनी अधिकार।
साँस-साँस पर मनुज का होता जीवन छार॥॥

युग करवट ने मनुज के, बदले सब व्यापार।
चिन्तन छोड़ा शास्त्र का, लिया हाथ अखबार॥॥

चरणामृत के बाद ही, करते थे भव काम।
चायं संग ही चाहिए, समाचार सुखधाम॥॥

रूप वस्त्र बिगड़े नहीं इसका अतिशय ध्यान।
मन औ बुद्धि बिगाड़ की, तनिक नहीं पहिचान॥॥

उठ प्रभात निज कर लखें, करें प्रभू का ध्यान।
कप दर्शन कर खोलते, नैना चतुर सुजान॥॥

वर्तमान में गुरु शिष्य का रूप

बिना अकल के नकल जो, करनी देय बताय।
ऐसे चिन्तक गुरु के, चेला बलि-बलि जाय॥॥

चेला से गुरु को अधिक, चेली आज सुहाय।
चेला धेला में ठगे, चेली धेली लाय॥॥

गुरु बन कर यदि शिष्य का, हरा नहीं अज्ञान।
गौ हत्या से भी समझ, यह अपराध महान॥॥

ज्ञान-ज्योति का अरुण बन, खींचे रथ अज्ञान।
उस जैसा मूरख नहीं, इस दुनिया में आन॥॥

गुरू-गुरू की कूक से, गुरुता आवत नाय।
नाम नैनसुख हूँ धरे, अन्धे को न दिखाय॥॥

कभी-कभी के दिन बड़े, कभी-कभी की रात।
शिष्य गुरुहि उपदेश दे, यह कलियुग की बात॥॥

पुस्तक पढ़ि गुरु बन गए, पर गुरुता नहि पास।
धन की खातिर बिक रहे, शिष्य करें उपहास॥॥

शिक्षक व्यौपारी बने, गुरु का नाम लजाँय।
स्वयं भटक तम में रहे, कैसे दिशा दिखाँय॥॥

चिन्तन मनन बिसार के, भजें सिर्पफ कलदार।
नाव पफँसी मझधर में, कौन लगावे पार॥॥

शिष्य गुरु के बीच की, छूट गई मर्याद।
शिष्य द्वार पर अब करें, गुरू खड़े पफरियाद॥॥

शिष्य समय निश्चित करे, कल पढ़ना अब नाँहि।
हाँ जी, हाँ जी गुरु करे, नहि टूशन छुट जाहि॥॥

रोजनदारी कर रहे, शिक्षा के आधर।
चिन्ता में माँ शारदा, कैसे हो उद्धार॥॥

कक्षा में माँ बहिन की, बालक करते बात।
गुरुवर बैठ बरामदे, पीवें नम्बर सात॥॥

बी.ए. एम.ए. पास कर, शुद्ध न लिखना आय।
ज्ञान ज्योति 'पर' को कहाँ, निज तम ही न नसाय॥॥

खड़े-खड़े गुरु भौंकते, शिष्य बैठ मुस्काँय।
अर्थकरी विद्या भई, काहे को शरमाँय॥॥

गहन ज्ञान गठरी लिये, कोई गुरु मिल जाय।
कर कुतर्क लज्जित करे, दे तारी भग जाय॥॥

कुम्भ-कुम्हार सम नहीं, अब शिष्य-गुरु सम्बन्ध।
आज परीक्षा पास हित, होता है अनुबन्ध॥॥

लिखा-लिखा के जो गुरु, उत्तर देत रटाय।
मरी गाय की पूँछ से, वैतरणी तरि जाय॥॥

वेद शास्त्र अरु उपनिषद, धर्म पुरानन ज्ञान।
बिन समझे शिक्षक कहें, यह सब अब अज्ञान॥॥

निर्माता ही देश के, चाटुकार बन जाँहि।
एक प्रशस्तिपत्र हित, चरनन में गिर जाँहि॥॥

हिन्दी दिवस पर

स्वधर्म स्वदेश सुराज का, निज भाषा आधार।
स्वाभिमान बिन जगत्‌ में, मिले नहीं सत्कार॥॥

दो दिन हिन्दी दिवस पर, होता जय-जयकार।
नेता, शासन बुद्धिजिन, सोवें पाँव पसार॥॥

राजनीति के जाल पड़, हिन्दी हुई कुरूप।
हंसी बगुलों में पफँसी, भूल गई निज रूप॥॥

मैकाले की सुरा का, मद नित बढ़ता जाय।
अर्ध सदी के आँकडे़ देखो तनिक उठाय॥॥

पुरस्कार, वेतन-बढ़त, विज्ञापन, परचार।
तुलसी सूर कबीर को, हिन्दी रही पुकार॥॥

दर्शन संस्कृति धर्म निज, वेद शास्त्र इतिहास।
निज भाषा जाने बिना, मिले न तत्व प्रकास॥॥

भारत जैसा विश्व में, मिले न दूजा देश।
पर भाषा में जो करे, निज भाषा उपदेश॥॥

हिन्दी में दस्तखत किये, लज्जा अनुभव होय।
विश्वमंच पर ढूँढिये, ऐसा मिले न कोय॥॥

काग नकल हंसा करे, अप संस्कृति की देन।
केक कटें दीपक बुझें, जन्मदिवस की रैन॥॥

हिन्दी से रोटी कमा, गावें इंगलिश गीत।
करें आचरण शत्रुवत्‌, हिन्दू-हिन्दी मीत॥॥

वेद, उपनिषद, शास्त्र सब भूल गए युवराज।
आयु, ज्ञान, सिद्धान्त सब, सौंपत लगी न लाज॥॥

मानव के व्यक्तित्व की, निर्मात्री हैं तीन।
धरा, धरणि, भाषा बिना, पशुवत जीवन दीन॥॥

हिन्दू हिन्दी छोड़कर, पर-भाषा अभिमान।
'जननी' पड़ी उपेक्षिता, 'आया' पावे मान॥॥

नाक, आँख, मुँह सिकुड़ते, सुन हिन्दी में बात।
आपफीसर इंगलिश जने, हिन्दी जने जमात॥॥

अटल जी के प्रति

'अटल' अचल सम आपका, है व्यक्तित्व महान।
भारत माँ का विश्व में, बढ़ा दिया सम्मान॥॥

राष्ट्र संघ के मंच पर, हिन्दी का उद्घोष।
सत्ता को पिफर भी नहीं, आया किंचित होश॥॥

चार दशक प्रतिपक्ष की, गरिमा रखी संजोय।
राष्ट्र व्यथा अनुमान कर, मनके लिए पिरोय॥॥

लोह शूल की डगर पर, चल काटा इक वर्ष।
चिंतक, कवि, नीतिज्ञ पर, पश्चिम करे विमर्श॥॥

बावनवीं इस शती में, हो भारत उत्कर्ष।
त्याग, तपस्या, साध्ना, लख जन-जन में हर्ष॥॥

भाषा, संस्कृति एक हो, भारत होय अखण्ड।
केसर क्यारी भूमि से, होंय दूर उदण्ड॥॥

शेष सत्र निर्विन रह, यदि पूरा हो जाय।
काल खण्ड इतिहास में, स्वर्णिम युग कहलाय॥॥

केशव के प्रति

बापू जी के कार्य से, मिली न केशव शान्ति।
हिन्दू संगठन के बिना, होय नहीं नव क्रान्ति॥॥

विजयपर्व पर हो गया, नव विचार का जन्म।
संघ बीज बो नागपुर, किया देश को धन्य॥॥

उन्नीस सौ पच्चीस सन, राम-विजय सा पर्व।
दलित उपेक्षित हिन्दु में, जागा सोया गर्व॥॥

अल्प समय में देखते, स्थापित की शाख।
आँख पफाड़ जग देखता, सेवक क्रिया कलाप॥॥

विश्व पंथ पर एक नहिं, परहित त्यागी पंथ।
क्रिया कलाप लखि चकित सब, मुल्ला, पोप, महंत॥॥

शिक्षित त्यागी संयमी, बालक, वृद्ध जवान।
संस्कार दे, कर रहे, मनुज-राष्ट्र उत्थान॥॥

केशव जी की पौध को, दे दर्शन की खाद।
पूज्य 'गुरुजी' ने किया, जन मन में आबाद॥॥

रज्जू भैया के प्रति

भारत भू की अस्मिता के रक्षक हो आर्य।
केशव केतन कर दिया हर दिसि में स्वीकार्य॥॥

जन नायक, सेवक बने, लखे न तन के रोग।
त्याग, तपस्या, साध से, करते प्रेरित लोग॥॥

राजनीति

प्रजातंत्र के नाम पर, खूब मची है लूट
आश्वासन दे वोट का, उस को सारी छूट॥॥

शासक व्यौपारी बने, सचिव बने एजेन्ट।
हर सौदे में चाहिए, इन को कुछ परसेन्ट॥॥

देखा है, सब देखते, देखेंगे, सब बात।
नेता जी का धर्म है, तुम मत सोचो तात॥॥

प्रजातन्त्र के नाम पर, नेता मौज उड़ाय।
गुन बतलावे छाछ के, खुद माखन खा जाय॥॥

सूखा बाढ़ विपत्ति में, जब जनता पफँस जाय।
सेवा का बिल्ला लगा, देश-विदेश उड़ाय॥॥

कल तक जो छानत पिफरे, गली-गली की खाक।
चमचागिरी से वे बने, अब नेता की नाक॥॥

नेता जी जाने नहीं, खुद ही इनका अर्थ।
नीति, धर्म की बात अब, करनी इनसे व्यर्थ॥॥

ठगी, हवाला, घुटाला, मिल आवंटन साथ।
भारत माँ की सम्पदा, लूट रहे दिन रात॥॥

सस्ता गेहूँ भेजकर, मँहगा रहे मँगाय।
परोपकार का दूसरा, कहिए कौन उपाय॥॥

एक कम्पनी ने किया, देश कभी आधीन।
आज उदारीकरण ने, छूट अनेकों दीन॥॥

आध हिस्सा आय का, ब्याज बहाने जाय।
देश तरक्की कर रहा, शासन रहा बताय॥॥

देश-भक्ति और राष्ट्र हित, जनता का अधिकार।
साक्षी हर इतिहास है, देखो पृष्ठ उघार॥॥

लक्ष्मी, तात्या, तिलक, बसु, गाँधी अरु सरदार।
भूले वंशज राष्ट्र हित, बनते ही सरकार॥॥

नीति धर्म जाने बिना, राजनीति की बात।
रेत न ज्यों मुट्ठी रुके, छलनी जल न समात॥॥

मिल राजीवी जन्म से, बीस अगस्त हु धन्य।
चमचों के आलाप में, कोइ न इन सम अन्य॥॥

चारण युग पिफर आ गया, देखो आँख पसार।
जड़ काटें जो राष्ट्र की, तिन की जय-जयकार॥॥

राजनीति पंडित बने, चमचे दूरन्देश।
नेहरु, इन्दिरा को भुला, राजीवी सन्देश॥॥

चमचों का नहि धर्म कुछ, ना ही कोई जात।
रात गवाँवें गीत गा, देखें भरी परात॥॥

चमचों बिन जनतन्त्र में, होय नहीं कल्याण।
चमचों की संख्या बनी, नेता की पहिचान॥॥

सारे नेता कर रहे, देश-भक्ति की बात।
पिफर भी निसिदिन मात पर, संकट घन घहरात॥॥

गाँधी नेहरु इन्दिरा, औ राजीव महान।
भूल सकल इतिहास सब, गावें इनका गान॥॥

तिलक लाल और भगत सिंह, बिस्मिल औ आज़ाद।
वल्लभ, लाल, सुभाष के, नाम न इनको याद॥॥

राजनीति है स्वार्थ वश राष्ट्र भक्ति है त्याग।
राष्ट्रभक्ति यदि है हृदय, राजनीति दे त्याग॥॥

राजनीति के स्वार्थ हित, कियो विधेयक पास।
राष्ट्र, धर्म, हिन्दुत्व की, इन ते करो न आस॥॥

झूठी होती दीखती परम्परा की बात।
सात-पाँच मिल कीजिए, लाज लगे नहिं हाथ॥॥

चार सहोदर एक मत, होकर चलते नाय।
अनुज अठारह साथ अब, बैठ रहे बतिआय॥॥

दो बैलों का साधना, भी है टेढ़ी खीर।
हय-गय, खर, कूकर, मगर, बँधे एक जंजीर॥॥

जयललिता सुखराम का, भारी पड़िहै साथ।
कल तक जो ललकारते, आज मिलावें हाथ॥॥

सोच समझ कर दीजिये, सिंहासन पथ पाम।
अपयश की गगरी पुनः, पफूटे नहि तव नाम॥॥

भारत जन के भाल पर, पिफर से लगा कलंक।
त्रिशंकू सरकार से, मन है पुनः सशंक॥॥

पतन काल मति जाय नसि, कहैं शास्त्र विद्वान।
शती अन्त तक अवश्य ही, होगा नव अभिमान॥॥

सम्प्रदाय और धर्म की, राजनीति ले आड़।
जन मानस की भावना, पर बाँधी है बाढ़॥॥

क्षेत्रवाद, निज-स्वार्थ की, लगा रहे सब घात।
जन मानस की वेदना, की नहि बात सुहात॥॥

रामो-वामो कर रहे, संसद में मिल शोर।
नीति और सिद्धान्त कूँ, मूर्ख कहें गठजोड़॥॥

सत्ता की लाठी रही, जनता भैंस चराय।
बाबा, दादा को कथन, अबहूँ सत्य लखाय॥॥

राजनैतिक घटनाएँ और राजनीतिज्ञ

सोनिया के दरबार में, कीनी जाय पुकार।
कांग्रेस की नाव को, देवि लगाओ पार॥॥

कई साल से दीन जन, करते रहे गुहार।
पिघल गया नारी हृदय, की अर्जी स्वीकार॥॥

गत वर्षों में गिरी थी, एक सिंह पर गाज।
कब तक देखें केसरी, बचा सकेंगे लाज॥॥

मृतक न जीवित होत है, सुध कुण्ड हूँ बोर।
कहा समझ कर सोनिया, आई शव की ओर॥॥

तेरह की तिकड़ी बनी, चली न संवत एक।
धर्म विरोधी मंच पर, पिफर जुड़ रहे अनेक॥॥

अपने घर को छोड़कर, आय रहे जो पास।
सोच समझ कर कीजिए, इन सब पर विश्वास॥॥

जयललिता से संधि का, मत कीजै प्रस्ताव।
भ्रष्टाचारी मित्र से, बच न सकेगी नाव॥॥

राजनीति के क्षेत्र में, शत्रु-मित्र नहि कोय।
सत्ता कुर्सी है प्रथम, चाहे जो कछु होय॥॥

आश्वासन देकर किया मायावती ने घात।
ऐसी नेता को कभी, भूल न लीजै साथ॥॥

मानव के हित पद बने, मानव पद-हित नाय।
मूरख पद आसीन हो, न्याय नहीं कर पाय॥॥

पाँच मिनट में बन रही, थी जिन की सरकार।
सात रोज में भी नहीं, खुद को सके सुधर॥॥

तीन देवियों ने किया, असमय ऐसा वार।
है बनती दिखती नहीं, अब स्थायी सरकार॥॥

संविधान विद कह रहे, बारम्बार पुकार।
बी.जे.पी. सकती चला, अब संविद सरकार॥॥

सौ करोड़ के देश में, नेता मिला न एक।
अब इटली की शरण में, रगड़ें नाक अनेक॥॥

सर्वोच्च पद देश का, है किस कारन मौन।
संशय अस्थिर-गर्त में, गिरा रहा है कौन॥॥

मानवता और न्याय का, पीट रहे जो ढोल।
सिंदानी की घोषणा, खोल रही है पोल॥॥

लोकतंत्र हित चाहिए, दृढ़ निश्चय सरकार।
वर्ण, जाति अरु क्षेत्र से, उठ कर करो विचार॥॥

आए दिन यदि देश में, बदली यूँ सरकार।
तब निवेश सम्भव नहीं, अर्थशास्त्र का सार॥॥

संगमा, अनवर संग मिल, चिन्तन किया पवार।
तीन उच्चपद राष्ट्रहित, कीजै मित्र विचार॥॥

स्वामी ललिता सोनिया, मिलकर किया विचार।
चलनी अब नहीं चाहिए, केन्द्र 'अटल' सरकार॥॥

दाव-धैंस की नीति से आगे बढ़े न देश।
निज-हित-साधन में नहीं, लगे लाज जिन लेश॥॥

लगता है इस सत्र में, टिके न यह सरकार।
भावी नव निर्माण का, होगा बन्टाधर॥॥

त्रिगुट संग मिल सोनिया, ले सरकार बनाय।
शेष अवधि की बात क्या, साल चलन नहि पाय॥॥

आए दिन ललिता रही, नंगा नाच दिखाय।
'अटल' अचल कब तक रहें, अब नहीं देखा जाय॥॥

दो यादव सुरजीत मिल, स्वामी, ललिता नार।
नीति और सिद्धान्त बिन, चल न सके सरकार॥॥

अन्तिम साल शताब्दि का, खेलेगा कुछ खेल।
आम चुनावी जलधि में, नेता रहे धकेल॥॥

वर्तमान को भूल अब, कीजै भावी ध्यान।
मूल संगठन के घटक, की करिये पहिचान॥॥

बिना संगठन के कभी, चल न सके सरकार।
दिल्ली, मध्यप्रदेश अब, है यू.पी. पर वार॥॥

आरक्षण की चाल चल, देवीहिं दीनी मात।
जात-पाँति की आग पिफर, पफैली रातों रात॥॥

राष्ट्र-भक्त बन कर रहे, अपनों पर ही वार।
सत्ता ही तो है नहीं, राजनीति का सार॥॥

संविधन वेत्ता रहे, कर नित नये विचार।
वर्तमान सरकार के, हैं कितने अधिकार॥॥

शब्द-जाल में पफँस रहे, शापित तर्क विचार।
धरे हाथ पर हाथ क्या, मूक रहे सरकार॥॥

पाँच महीने देश क्या, रहे देखता खेल।
मनमानी बाबू करें, जो नहि रहे नकेल॥॥

काम अधुरे रोककर, यदि बैठे सरकार।
राष्ट्र विरोधी भाव का, हो निश्चित विस्तार॥॥

गुजराती सा हो रहा, यू.पी. में भी खेल।
वही दिशा कल्याण की, जिस दिशि गया बघेल॥॥

दिल्ली का परिणाम भी, सका न आँखें खोल।
सिंह खुराना द्वन्द्व ने, दी विपक्ष को पोल॥॥

मिश्रा, टण्डन, राजसिंह, को कर दिया निराश।
यू.पी. पर कल्याण जी, लगी हुई है आस॥॥

यू.पी. में सांसद अगर, गए कहीं जो हार।
बी.जे.पी. की केन्द्र में, बन न सके सरकार॥॥

राजनीति के नाम पर, होती आज अनीति।
सत्ता का सम्बन्ध बस, नहिं कोउ शत्रु न मीत॥॥

राजनीति में अब भई, भाँडन की भरमार।
नीति शब्द जाने नहीं, पद के दावेदार॥॥

नेता और नेतृत्व में, अब नाहीं सम्बन्ध।
देश-राष्ट्र जन नाम पर, रचें बहुत से पफन्द॥॥

रैली देखत लाल की, वी.पी. भये उदास।
आरक्षण की औषधी, लाए रामविलास॥॥

तेरह दिन ही भाजपा, चला सकी सरकार।
तेरह ने मिल एक दिन, दीनी टक्कर मार॥॥

शिवजी की बारात सम, गण सब रंग-बिरंग।
गौड़ा जी का कर रहे, नित्य कापिफया तंग॥॥

राजनीति के खेल में, कोई माय न बाप।
कल तक जिसकी वन्दना, आज पुजावें आप॥॥

चुपके-चुपके केसरी, दीना सिंघ पछार।
राव साब की चाल के, विफल किये सब वार॥॥

पाँच साल श्री राव ने, दीनी सब को छूट।
धन, धरती, चारा दवा, सब अपनी हैं, लूट॥॥

तारकोल, चारा, चना, टेलीपफून, मकान।
किसे कहें छोटा-बड़ा, सब हँडिया के धन॥॥

बूटा, जाखड़, रामसुख, लालू, भजन मिसाल।
जयललिता औ राव मिल, दक्षिण किया निहाल॥॥

तुष्टीकरण की नीति का, देख चुके परिणाम।
मढ़ा नगाड़ा जाय नहि, सौ चूहे के चाम॥॥

पी.वी.जी भी चल पडे़ वी.पी. सिंह की राह।
मनमानी कर लीजिए, एक वर्ष कुछ माह॥॥

'हिन्दू' हिन्दुस्थान में, बनते जाँहि अछूत।
राष्ट्रवाद की आड़ में, चाल चल रहे धूर्त॥॥

असमय ही राजीव को, काल ले गया खींच।
बिन माँझी की नाव अब, इंका भँवरन बीच॥॥

व्यक्ति पूजकों ने मिला, दी मिट्टी में शान।
पाँच दिवस की खोज में, मिला न एक प्रधान॥॥

राजनीति के जाल के, काट दिये सब पफन्द।
बेटा-बेटी राग में, रहो सहज स्वछन्द॥॥

मित्र भाववश ही दई, बच्चन उचित सलाह।
रंगे सियार के झुण्ड में, भाभी नहि पफँस जाय॥॥

राजनीति के नाम पर, चला रहे व्यौपार।
अंधे रंग बता रहे, मूक वाक्‌ व्यवहार॥॥

अल्पसंख्यीय वोट से, कुर्सी मिलती नाँहि।
शेख, बुखारी चरण में, अब वह ताकत नाँहि॥॥

भारत में हिन्दुत्व की, अब न उपेक्षा होय।
जन मानस की भावना, समझ लेहु सब कोय॥॥

समदर्शी तक खा गए, राम नाम से मात।
बीस बरस की साधना, लुटी प्रेम के हाथ॥॥

भारत-जन जागृत हुआ, देखे सब के काम।
बिना काम मत ना मिले, अब पार्टी के नाम॥॥

डूबी तीन प्रदेश में, बी.जे.पी. सरकार।
आत्म निरीक्षण कीजिए, क्यों खाई यह मार॥॥

जन-सेवा के बिन नहीं, नेता जी कल्याण।
'अडवानी' और 'अटल' जी, कब तक रक्खें ध्यान॥॥

कल तक ताऊ ही रहे, थे बढ़-बढ़ कर बोल।
इस चुनाव ने खोल दी, उनकी सारी पोल॥॥

चुल्लू भर पानी बहुत, शरमदार के काज।
भारत के बेताज को, आवे तनिक न लाज॥॥

बात राष्ट्रहित की करें, सत्ता लोभी सियार॥
चार दशक में राष्ट्रहित, कर न सकी सरकार॥॥

नाम मात्र के रह गए, आज तीज त्यौहार।
मेंहदी चूड़ी लेन में, धनिया है लाचार॥॥

दीन-हीन हरिजनन पर, रुके न अत्याचार।
सत्ता-कुर्सी के लिए, पीटें ढोल लबार॥॥

बापू यदि जीवित कहीं, रह जाते कुछ काल।
तिल-तिल पल-पल मारते, नेहरु लाल कलाल॥॥

पाँच दशक में एक भी, खोज न सके प्रमाण।
शठ-हठ बस हैं छोड़ते, अब भी ओछे बाण॥॥

देश-द्रोह खुद ही करें, दोष मढें पर-माथ।
दूजे का तिल दीखता, नहि निज टेंट लखात॥॥

गाँधी जी के देश में, राज्यपाल का राज।
दो करोड़ बस खर्च कर, रखी भवन की लाज॥॥

राज्यपाल होता सदा, राष्ट्रपति का अंग।
पिफर क्यों कर कैसे रखे, भला हाथ को तंग॥॥

लोकतंत्र की विश्व में, चर्चा है सर्वत्र।
लालू सा नेता नहीं, दुनिया में अन्यत्र॥॥

ताल ठोंक कर कह रहे, लालू सबहि सुनाय।
को माई का लाल है, कुर्सी देय हिलाय॥॥

आज चुनावी दौर का, मचा हुआ है शोर।
प्रत्याशी सब साह हैं, प्रतिद्वन्द्वी सब चोर॥॥

लोक हनन कर पीटते लोकतन्त्र का ढोल।
गठबन्ध्न सरकार से खुलती उसकी पोल॥॥

सभी जगह सस्ती मिले महँगाई है नाम।
मिटा न पाए जो इसे कह दो उसे सलाम॥॥

शत्रु-शत्रु सब मित्र हों, नीति शास्त्र विचार।
तेरह रिपु ने मित्र बन, हथिया ली सरकार॥॥

अपने ही कल्याण हित, लुटा रहे हैं माल।
कर्ज, निवेश, विदेश का, विस्तृत होता जाल॥॥

सत्ता कुर्सी के लिए, क्रय कीना ईमान।
पाँच साल जनता लुटी, सोए चादर तान॥॥

बन्धु हवाला-घुटाला, मिलकर कीना राज।
रिश्वत दे कुर्सी बचा, नरसिंह राखी लाज॥॥

तेरह दल सरकार पर, गिरी केसरी गाज।
बचती अब दखिती नहीं, देवेगौड़ा लाज की लाज॥॥

बापू जी के नाम से, जो जग में विख्यात।
शैतानी सन्तान वह, मायावती बतात॥॥

अयोध्या कारसेवा

महाकुम्भ के पर्व पर, सन्तन कीन विचार।
जन्मभूमि की मुक्ति ही, हिन्दू-बल-आधर॥॥

देवरहा बाबा दिया, हर्षित ह्वै आशीष।
देवोत्थान एकादशी, दो हजार छियालीस॥॥

गाँव-गाँव चारों दिशा, पूजीं शिला अनन्त।
उजड़े हिन्दू-विपिन में, सदियों बाद बसन्त॥॥

देशवासियो सोच लो, पिफर यह दिन नहि आय।
जो न राम मन्दिर बने, तो हिन्दुत्व लजाय॥॥

सदियों में करवट लई, अब मत जाना सोय।
तन-मन-धन अरपन किये, जनम सार्थक होय॥॥

राम तिहारी भूमि पर, कैसा अत्याचार।
जन-मानस में प्रभु करो, लछमन का संचार॥॥

आज-कालि जो टल गई, शिलान्यास की बात।
देशवासियों सोच लो, पिफर नहि अवसर आत॥॥

मस्जिद खुद गिरवाय के, दैवहिं तुम को दोष।
ऐसे में भी बाँकुरो, मत खोना तुम होश॥॥

सरयू तट सम तट नहीं, राम नाम सम नाम।
अयोध्या सम नगरी नहीं, पूर्ण-काम सुखधाम॥॥

राम कृपा ते ज्यों बनौ, रामेश्वर सो सेतु।
रामशिला पूजन बनो, हिन्दु जागरण हेतु॥॥

सदियाँ बीती सोबते, अब तो जागो भाय।
या बिरियाँ जो ना जगे, पिफर नहि अवसर आय॥॥

सत्ता-लोभी, मूढ़मति, धर्म-कर्म ते हीन।
स्वारथ हित ये बेच दें, देश धर्म और दीन॥॥

संकर सुत के हाथ है, आज देश की डोर।
राम नाम के घोष ते, मद-बल देउ निचोर॥॥

दुर्बलता या तन्त्र की, समझ रहे उद्दण्ड।
जान बूझ हूँ वोट हित, बोलें झूठ प्रचण्ड॥॥

दुनिया भर में एक हू, मसजिद देउ दिखाय।
चन्दन की लकड़ी जहाँ, ढूँढे हूँ मिल जाय॥॥

एक नहीं मीनार जहँ, मुल्ला देत अजान।
राम भवन कूँ पिफर कहें, मसजिद ये शैतान॥॥

ऐसी मसजिद कौन सी, जहाँ नहीं मीनार।
बिन अजान के शरहते, कैसे होय गुहार॥॥

भीति चित्र और खम्भ में, पवन पुत्र वाराह।
का बाबर ने या जगह, पशु पूजा की आय॥॥

तुर्की हमलावर कहें, बाबर को ये लोग।
भारत में चर्चित भयो, सत्ता का संयोग॥॥

बार सत्ततर युद्ध का, झेल चुके हैं रोष।
लाखों माँओं ने करी, अपनी खाली कोख॥॥

मस्जिद के स्वामित्व में, साझा कभी न होय।
खुला द्वार जिसका रहे, आज्ञा देय न कोय॥॥

यदि झगडे़ की भूमि पै, मसजिद लेउ चिनाय।
कह हदीस उसकी दुआ, खुदा कबूले नाय॥॥

इमाम, मुअज्जिम मुतवली, खादिम की दरकार।
मसजिद में होता नहीं, प्रतिमा का अधिकार॥॥

भीति, खम्भ पर खुद रहें, हाँ तो चित्र अनेक।
मन्दिर कू-मसजिद कहें, हठधर्मी की टेक॥॥

आज तलक भी जिस जगह, लगी कभी न अजान।
इमाम, मुल्ला, मौलवी, का न कोई प्रमान॥॥

वाजिद अलीशाह और, मुहम्मद इब्राहीम।
सापफ-सापफ हैं लिख गए, मसजिद कभी रही न॥॥

पिछली बातें भूलकर, जागो हिन्दू वीर।
बार-बार मिलना नहीं, दुर्लभ देव शरीर॥॥

राम-राम कहते चलो, राम धम की ओर।
रात अन्धेरी मिट चली, होने आया भोर॥॥

लाठी, आँसू गैस और, गोली की टंकार।
सिंह सदृश आगे बढ़े, देखा सब संसार॥॥

लीला राम कृपाल की, देख न पाय नीच।
बाबा 'बस' ले के चलो, सेन, सिपाही बीच॥॥

इक दो की गिनती कहा, तोड़े सब अवरोध।
सागर-सम उमड़त चल्यो, राम-नाम जन-बोध॥॥

पलक झपकते चढ़ि गए, गुम्बद पर प्रभु बाल।
भगवा ध्वज पफहराय के, कीनो ऊँचो भाल॥॥

दाँतन अँगुरी दाब के, देखत सैन-सवार।
'मुल्ला' के आदेश पर, दीनी गोली मार॥॥

पक्षी पर मारे नहीं, बढ़ि-बढ़ि बोले बोल।
राम-भक्त 'सिंघल' दई, खोल ढोल की पोल॥॥

लाठी के आघात ते, कीन्हा रक्त-स्नान।
पीछे-पीछे वीर के, चली आर्य-सन्तान॥॥

नाम, रूप, गुन, प्रकट कर, सपफल कीन निज नाम।
मानव तन की सपफलता, जो आवे प्रभु काम॥॥

पूर्व पुण्य प्रारब्ध से, सरयू-सरिता-तीर।
रहीं परम दिव्यात्मा, जिनने तजै शरीर॥॥

बावनवीं शताब्दी के स्वागत में

बावनवीं इस सदी का, स्वागत कीजै दौड़।
त्याग, अहिंसा, सत्य श्रम, भारत हो सिरमौर॥॥

इक्यावन सौ वर्ष का, सोने सा इतिहास।
पिछले दो सौ साल में, कितना हुआ विनाश॥॥

बावनवीं का नाम सुन, चौंक रहे विद्वान।
मानस-सुत गौरांग के, नहिं अपनी पहचान॥॥

मन से जो अंग्रेज के, अब भी बने गुलाम।
इक्किसवीं का आज भी, करें वही गुणगान॥॥

एक जनवरी से नहीं, भारत का सम्बन्ध।
अपने मानस पर नहीं, अब कोई प्रतिबन्ध॥॥

इक्किसवीं के शोर में, निजता को मत भूल।
शक्ति, संगठन, शौर्य से, विश्व होय अनुकूल॥॥

चैत सुदी की प्रतिपदा, देती यह संदेश।
कलियुग का भी इसी दिन, हुआ लोक प्रवेश॥॥

विक्रम संवत्‌ की पड़ी, नींव आज के रोज।
भूल गए परतंत्र हो, निज संस्कृति निज ओज॥॥

इसी दिवस से हैं जुड़ी, प्रेरक कथा अनेक।
केशव ने हो अवतरित, किया राष्ट्र अभिषेक॥॥

मूर्ख सम्मेलन ;होलीद्ध के अवसर पर

गधाधिराज लंकाध्पिति, बाकी ढेंचू वृन्द।
पावन दिन यह शुभ घड़ी, जुड़े सभी मतिमन्द॥॥

दुखिया मानव जाति को, ढेंचू का उपदेश।
दीक्षा गदर्भ ज्ञान की, मेटे सकल कलेश॥॥

वक्त पड़े आवे शरण, बाप कहे हरषाय।
वैसे अपने कुटुम्ब में, नैक घुसन दे नाय॥॥

गुस्से में निज दोष कूँ, हम पै देत लगाय।
घरवारी सुनि सिर धुनै, मन-ही-मन पछिताय॥॥

क्लोपैट्रा सुन्दरि बनी, नहाय हमारे दूध।
दसमुख तक ने शीश पर, धरे हमारे पूज॥॥

ढेंचू की सुन शंख ध्वनि, काँप्यो बुद्ध समाज।
बहुमत यों जागो अगर, चलै नहीं पिफर राज॥॥

गध वोट ते खा रहे, माल मलीदा श्वान।
समय आ गया बंधुवर, पकरो इनके कान॥॥

बुद्धि वादी जाति में, ऊँच नीच के भाव।
अश्वानुज दर्शन सदृश, मिले न कहुँ सद्भाव॥॥

वीतराग हमसा कहीं तुम्हें मिलेगा नाँहि।
शीत, घाम, बरसा कभी, हमकूँ व्यापे नाँहि॥॥

लेखक/प्रकाशक

रचना शिशु साधक जननि, प्रकाशक है धय।
जो न उचित दाई मिले, शिशु असमय मर जाय॥॥

माँ शारद के भवन पर, मठाधीश अधिकार।
दरबारी चमचे रहे, साधक को दुत्कार॥॥

शब्द-भक्ति-ध्वनि वर्ण का, अन्तर तक नहि ज्ञात।
चमचागीरी कर वही, रचनाकार कहात॥॥

धरती कागद, हल कलम, बीज भाव के बोय।
जनहित पफसल उगावते, ताहि न बूझे कोय॥॥

ऽ ऽ ऽ

देख पिता की विवशता, सुख वैभव सब त्याग।
उत्पल वर्णा भिक्षुणी, बनी धरि वैराग॥॥

जेठी बाई धन्य तुम, धन्य तुम्हारा कर्म।
तुम जैसी सन्तान बिनु, व्यथित गात का मर्म॥॥

'तनसुख' नाम कहाय हू, नहि तन-सुख पर दृष्टि।
राम नाम सम ही करी, सद्-गन्थन की सृष्टि॥॥

स्व संस्कृति, भाषा, धर्म, छापे अगनित ग्रन्थ।
व्यवसायी की भीड़ में, अलग बनायो पन्थ॥॥

पफुटकर

शब्द कोष में ही मिलें, इन शब्दों के अर्थ।
मानवता संवेदना सत्य नीति प्रभु व्यर्थ॥॥

सत्य बोल जो सुख चहे, सो मूरख कलिकाल।
त्रिकालज्ञ अंधे बने, चतुर धूर्त वाचाल॥॥

शास्त्र, र्ध्म और नीति की, बात करो मत भूल।
स्वार्थ वाटिका में भला, किसको भावे शूल॥॥

श्राद्ध पक्ष था काग का, भई पुरानी बात।
अब तो कागा वर्ष भर, कोयल कूँ लतियात॥॥

सबने ही निज चित्त में, यह निश्चय कर लीन।
बुद्धि बाँटी जिस दिन प्रभु, तीन भाग मोहि दीन॥॥

चौथाई में बसत है, यह सारा संसार।
कौन लाल जन्मा यहाँ, पावे हमसे पार॥॥

पढ़ि-पढ़ि पोथी हो गए, बी.ए., एम.ए. पास।
घृत से पावक ज्यों बढ़े, त्यों ही बढ़त निराश॥॥

मूरख विद्, निधनी, धनी, दुर्बल और बलवान।
सूर्य-पुत्र की दृष्टि में, हैं सब एक समान॥॥

कहा न लोभी पा सके, कहा न अगनि समाय।
लोभी यश नहि पा सके, सत्य न अगनि समाय॥॥

आशा माँ की कोख तें, जनमें दुःख कपूत।
आस त्याग संतोष तें, पावे सुक्ख सपूत॥॥

कनक, कामिनी, वारुणी, मद जग ये विख्यात।
सरकारी पद सामने, तीनों ही शरमात॥॥

टट्टू जैसी चाल से, चलते थे दिनरात।
सरकारी मुद्रा लगे, अर्वः सम इतरात॥॥

'शापित' सुविध-शुल्क बिनु होय न कोई काम।
न्याय और शिक्षा तलक, मिले खरच के दाम॥॥

कातिल तक कानून के, पहुँच न पाते हाथ।
निरपराध पफाँसी चढ़ा, न्याय परम सुख पात॥॥

आत्म-वेदना में निहित, शाश्वत सुख का मूल।
तप कर इस विरहाग्नि में, काँटे बनते पफूल॥॥

अन्तर्मन की वेदना, घुन ज्यों तन कूँ खात।
दूजै तै न कहत बने, अन्दर ही धुँधियात॥॥

भला बुरा जग में न कछु, एक वस्तु दो नामु।
कमल खिले, कुमुदनि मुँदे, उदय होय जब भानु॥॥

ऐसी कुछ इच्छा नहीं, जिससे होय अधर्म।
केवल भाव-विचार हित, अधर करें कुछ कर्म॥॥

चिन्ता रोटी, रूप रुचि, औ अतीत की याद॥
लघु जीवन में मनुज अब, करें कहाँ पफरियाद॥॥

चषक दोउ मद ते भरे, लहरि लहरि लहराय।
पर पंखुरी गुलाब की, कुछ भी बोलत नाय॥॥

कर आगे लक्ष्मी बसे, शारद मध्यम भाग।
मूलभाग गोविन्द के, दरसन कीजै जाग॥॥

प्रात होत ही देखिए, अपने दोऊ हाथ।
श्री शारद कौ ध्यान कर, सुमिरो दीना नाथ॥॥

धरती माँ को नमन कर, क्षमा याचना संग।
कर्तापन को त्यागकर, भोगो सारे रंग॥॥

सुमन महत्ता में बसे नम्र भाव की गंध।
अहंकार कंटक हटा, जीव होय निर्द्वन॥॥

समय, विवशता देख नर, सह लेता अन्याय।
पर अन्यायी को कभी, मनुज भूल नहि पाय॥॥

राजा, मंत्री, अश्व, गज, क्या पैदल क्या ऊँट।
मायावश गति भिन्न है, एक काठ के ठूँठ॥॥

मानवता हित चाहिए, शुद्ध दुग्ध विश्वास।
कपट-निम्बु की बून्द इक, मानस करे खटास॥॥

धन जन तो संसार में, बिछुड़ मिले बहु बार।
पर पत्ता विश्वास कौ, टूट लगे नहि डार॥॥

बिना पढ़े चिन्तन किये, करें शास्त्र की बात।
इन कलि के विद्वान तें, बह्मा हूँ लजियात॥॥

आत्म नदी में सत्य जल, शीत लहर संयुक्त।
चरित्र-तीर्थ, संयम तट, स्नान करे हो मुक्त॥॥

कुछ अपने बारे में

सहत-सहत पीड़ा हुआ 'शापित' मन अभ्यस्त।
पास न पीड़ा आवती, हुए हौंसले पस्त॥॥

कहाँ गई वह जिन्दगी, कहाँ गया वह जोश।
भूलें रह-रह सालतीं, आवे निज पर रोष॥॥

इन निधनी दुखियान की, प्रभु अब सुनो पुकार।
तुम बिन दूजो जगत्‌ में, को है तारनहार॥॥

एक तिहारो आसरो, और न न दूजो ठाउँ।
पाँव थके अँखियाँ शिथिल, किस विधि तोकू पाऊँ॥॥

काम क्रोध का पूतला, अन्तर अहं प्रधान।
इसमें कुछ मेरा नहीं, केवल तेरी आन॥॥

देकर मुझको बुद्धिबल, भेज दिया जग माँहि।
धन पद की सामर्थ्य बिन, लोग देख मुसकाँहि॥॥

दो पाटन में पिस रहा 'शापित' जीवन तोर।
रात न सोवन देय कवि, अध्यापक नहि भोर॥॥

मानवता संवेदना, बनी आज अभिशाप।
'शापित' बन मन भोगता, मानवता का शाप॥॥

दर-दर भटक्यो बालपन, बेचे पफल आकन्द।
गुरु कृपा प्रभु दया ते, कलम चले निर्द्वन्द्व॥॥

अल्प काल सेवा करी, मेवा मिली अनन्त।
चपरासी चिन्तक हुआ, मनुआ अब निश्चिन्त॥॥

आधे से ज्यादा कटी, प्राप्त हुआ धन नाम।
ऐसी शक्ति देऊ प्रभु, करूँ श्रेष्ठतम काम॥॥

हो निराश पथ भ्रष्ट हो बैठा था मन मार।
राम प्रेरणा भरत ने दी साहस की डार॥॥

जग में अपना कौन है, सब स्वारथ की प्रीत।
मम जीवन की हाथ तव, नाथ हार अरु जीत॥॥

ऐसी ऊँचाई मुझे, मत देना भगवान।
जहाँ पहुँच निज बंधु जन, की भूलूँ पहचान॥॥

सहधर्मिणी कान्तादेवी के प्रति

कैसे तुम्हें बताऊँ मैं, तुम हो स्वयं प्रवीन।
सबके मन की जानती, पर मेरे मन की न॥॥

तेरे शशि-मुख किरन की चाहूँ इक रसधर।
एक बार की कृपा ते, हो शापित उद्धार॥॥

शापित मन बैरी भयो, अब अपने वश नाहि।
निसि बासर तड़पत रहे, तव दर्शन की चाह॥॥

नाही करत बने नहीं, हाँ करते सकुचाय।
'शापित' ऐसे जीव की, किस विधि करें सहाय॥॥

द्यूत खेल अधर्म कियो, मन में अति संताप।
व्यसन छुड़ावहु करि छमा, रक्षा कीजै आप॥॥

पुत्र किया जीवन सपफल, सेवापथ अपनाय।
स्वस्थ दीर्घ जीवन मिले, प्रतिपल राम सहाय॥॥